अप्रतिम कविताएँ
होली की शाम
होली की शाम सड़कें वीरान
जैसे गुज़र गया हो कारवाँ
छोड़ गया कुछ अपनी निशानियाँ --
बिखरे हुए रंग, फूटे गुब्बारे,
बिछे हुए पीपल के पत्ते,
डाल से टूटे चम्पा के फूल...
इक्का-दुक्का किशोरों की टोलियाँ,
लौटती घरों को,
रंगे हुए कपड़े और पुते हुए चेहरे
बयाँ कर रहे हैं ये दास्ताँ --
अभी अभी गुज़र गया यहाँ से
रँगों का एक कारवाँ
- गीता मल्होत्रा
Geeta Malhotra
Email: [email protected]

काव्यालय को प्राप्त: 18 Mar 2014. काव्यालय पर प्रकाशित: 22 Mar 2019

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इन दर्पणों में देखा तो
~ वाणी मुरारका

वर्षों पहले यहाँ कुछ लोग रहते थे। उन्होंने कुछ कृतियां रचीं, जिन्हें 'वेद' कहते हैं। वेद हमारी धरोहर हैं, पर उनके विषय में मैं ज्यादा कुछ नहीं जानती हूँ। जो जानती हूँ वह शून्य के बराबर है।

फिर एक व्यक्ति ने, अमृत खरे ने, मेरे सामने कुछ दर्पण खड़े कर दिए। उन दर्पणों में वेद की कृतियाँ एक अलग रूप में दिखती हैं, जिसे ग्रहण कर सकती हूँ, जो अपने में सरस और कोमल हैं। पर उससे भी महत्वपूर्ण, अमृत खरे ने जो दर्पण खड़े किए हैं उनमें मैं उन लोगों को देख सकती हूँ जो कोटि-कोटि वर्षों पहले यहाँ रहा करते थे। ये दर्पण वेद की ऋचाओं के काव्यानुवाद हैं, और इनका संकलन है 'श्रुतिछंदा'।

"श्रुतिछंदा" में मुझे दिखती है ...

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
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