अप्रतिम कविताएँ
वो हवा वहीं ठहरी है
वो हवा वहीं ठहरी है अभी तक
और छूती है रोज
लगभग रोक लेती हुई सी
जब गुजरने लगता हूँ वहाँ से
जहाँ उस दिन गुजरते फोन आ गया था तुम्हारा
और थोड़ी देर के लिए आस पास
चम्पा के फूल खिल आये थे
अपनी साँसों में समेटते हुए
कई सा हरा रंग ओढ़ लिया था धरती ने
और कोंपलें निकल आई थीं डालियों में

जो प्राण को सुहाना कर देता है
लिपे हुए आँगन सा
और नये पुआल से सजे घर सा
जो जुगनुओं से पाट देता है आकाश को
और दूबों से भोर
बौना करके कलह सारा
खुशबू के इस ठहराव और
रंगों के ऐसे रुक जाने के लिए
हवा के ऐसे ठिठक जाने और
रचना की खिलखिलाहट के लिए
तुम्हें, मुझे
और दुनिया के तमाम लोगों को
प्यार करते रहना चाहिये

- प्रकाश देवकुलिश

काव्यालय को प्राप्त: 22 Jul 2021. काव्यालय पर प्रकाशित: 10 Sep 2021

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व्यथा कोई अनसुनी न रहे,
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एक जश्न भी खोया भीतर,
जिसने उसे जगाना चाहा
..

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