क्या है ऐसा तुममें
कि देखते ही मुँद जाती हैं आँखे
और बजने लगता है
श्रद्धा का मौलिक अर्थ
क्या उस पार उड़ाये
लाल अबीर की बची परागधूलि की लालिमा
जो छाई क्षितिज की गोद में
करुणा बन पुकारती सुबह-सुबह?
या पीतिमा
जो मढ़ रही तुम्हारे अन्तस तेज पर सोना
जैसे ठठेरे ने अभी-अभी की हो पीतल की कलई
चमकते धातु के गोल बरतन पर?
या पालने हमें
पिता की तरह सुबह निकलने, शाम लौटने की
तुम्हारी दृढ़ दिनचर्या?
उम्मीद, विश्वास, परिवर्तन
अन्दर उढ़ेलते-से तुम उग आते हो
जगाते भरोसा
कि मिलेगी असहमति को जगह
सामंजस्य को धरती
चरम से पहले टूटेगा अँधेरा
फैलते दूध से उजाले में
एक हो जायेगी खीर, सेवई
तमस केन्द्रों पर पड़ता तुम्हारे तेज का प्रहार
होते बरबस कर बद्ध
हे ऊर्जा के आदि अन्त
प्रणाम।
परागधूलि : फूलों के लम्बे केसरों पर कण, pollen; पीतिमा : पीलापन; ठठेरा : जो धातु पीट कर बर्तन बनाता है; कलई : रांगा (टिन) की परत चढ़ाना ; कर बद्ध : जुड़े हाथ (प्रणाम में)
काव्यालय को प्राप्त: 3 Apr 2022.
काव्यालय पर प्रकाशित: 15 Apr 2022