अप्रतिम कविताएँ
सूर्य
सूर्य, तुम्हें देखते-देखते
मैं वृद्ध हो गया।

लोग कहते हैं,
मैंने तुम्हारी किरणें पी हैं,
तुम्हारी आग को
पास बैठकर तापा है।

और अफ़वाह यह भी है
कि मैं बाहर से बली
और भीतर से समृद्ध हो गया।

मगर राज़ की बात कहूँ,
तो तुम्हें कलंक लगेगा।

ताकत मुझे अब तुमसे नहीं,
अन्धकार से मिलती है।
जहाँ तक तुम्हारी किरणें
नहीं पहुँचतीं,
उस गुफा के हाहाकार से मिलती है।
- रामधारी सिंह 'दिनकर'
दिनकर के संकलन "हारे को हरिनाम" से

काव्यालय पर प्रकाशित: 8 Nov 2021

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झर-झर बहते नेत्रों से,
कौन सा सत्य बहा होगा?
वो सत्य बना आखिर पानी,
जो कहीं नहीं कहा होगा।

झलकती सी बेचैनी को,
कितना धिक्कार मिला होगा?
बाद में सोचे है इंसान,
पहले अंधा-बहरा होगा।

तलाश करे या आस करे,
किस पर विश्वास ज़रा होगा?
..

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