अप्रतिम कविताएँ
सूर्य
सूर्य, तुम्हें देखते-देखते
मैं वृद्ध हो गया।

लोग कहते हैं,
मैंने तुम्हारी किरणें पी हैं,
तुम्हारी आग को
पास बैठकर तापा है।

और अफ़वाह यह भी है
कि मैं बाहर से बली
और भीतर से समृद्ध हो गया।

मगर राज़ की बात कहूँ,
तो तुम्हें कलंक लगेगा।

ताकत मुझे अब तुमसे नहीं,
अन्धकार से मिलती है।
जहाँ तक तुम्हारी किरणें
नहीं पहुँचतीं,
उस गुफा के हाहाकार से मिलती है।
- रामधारी सिंह 'दिनकर'
दिनकर के संकलन "हारे को हरिनाम" से
विषय:
अंधेरा (4)

काव्यालय पर प्रकाशित: 8 Nov 2021

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युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?

हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
बचपन की आँखें भयाक्रान्त, खण्डहर घर, धरती मैली है।
छाया नभ में काला पतझड़, खो गया कहाँ नीला मंजर?
झरनों का गाना था कल तक, पर आज मौत की रैली है।

किलकारी भरते ..

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ना अब तलवारें, ना ढाल की बात है,
युद्ध स्मार्ट है, तकनीक की सौगात है।
ड्रोन गगन में, सिग्नल ज़मीन पर,
साइबर कमांड है अब सबसे ऊपर।

सुनो जवानों! ये डिजिटल रण है,
मस्तिष्क और मशीन का यह संगम है।
कोड हथियार है और डेटा ... ..

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कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।

नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...

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