पतझड़ की पगलाई धूप
भोर भई जो आँखें मींचे,
तकिये को सिरहाने खींचे,
लोट गई इक बार पीठ पर
ले लम्बी जम्हाई धूप,
अनमन सी अलसाई धूप |
पोंछ रात का बिखरा काजल,
सूरज नीचे दबता आँचल,
खींच अलग हो दबे पैर से,
देह-चुनर सरकाई धूप,
यौवन ज्यों सुलगाई धूप |
फुदक-फुदक खेले आँगन भर
खाने-खाने एक पाँव पर,
पत्ती-पत्ती आँख-मिचौली
बचपन सी बौराई धूप,
पतझड़ की पगलाई धूप |
इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा
कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।
हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।
जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
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