अप्रतिम कविताएँ
मृत्यु: दो प्रतिछवि (२)

सहेली

'जीवन' मिला है जब से,
तुम्हारे साथ जी रही हूँ तब से,
तुम मेरी और मैं तुम्हारी
सहेली कई बरस से,
तुम मुझे 'जीवन' की ओर
धकेलती रही हो कब से,
"अभी तुम्हारा समय नहीं आया"
मेरे कान में कहती रही हो हँस के,
जब - जब मैं पूछती तुमसे,
असमय टपक पड़ने वाली
तुम इतनी समय की पाबंद कब से,
तब खोलती भेद कहती मुझसे,
ना, ना, ना, ना असमय नहीं,
आती हूँ समय पे शुरू से,
'जीवन' के खाते में अंकित
चलती हूँ, तिथि - दिवस पे
'नियत घड़ी' पे पहुँच निकट मैं
गोद में भर लेती हूँ झट से!
'जीवन' मिला है जब से,
तुम्हारे साथ जी रही हूँ तब से !
- दीप्ति गुप्ता
Deepti Gupta
Email: [email protected]
Deepti Gupta
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सविता के सब ओर मही माता चकराती है,
घूम-घूम दिन, रात, महीना वर्ष मनाती है,
कल्प लों अन्त न आता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

छोड़ छदन प्राचीन, नये दल वृक्षों ने धारे,
देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन
..

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..

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