अप्रतिम कविताएँ
कामायनी ('निर्वेद' परिच्छेद के कुछ छंद)
"तुमुल कोलाहल कलह में
मैं हृदय की बात रे मन!

        विकल होकर नित्य चंचल,
        खोजती जब नींद के पल,
        चेतना थक-सी रही तब,
        मैं मलय की वात रे मन!

चिर-विषाद-विलीन मन की,
इस व्यथा के तिमिर-वन की;
मैं उषा-सी ज्योति-रेखा,
कुसुम-विकसित प्रात रे मन!

        जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,
        चातकी कन को तरसती,
        उन्हीं जीवन-घाटियों की,
        मैं सरस बरसात रे मन!

पवन की प्राचीर में रुक
जला जीवन जी रहा झुक,
इस झुलसते विश्व-दिन की
मैं कुसुम-ऋतु-रात रे मन!

        चिर निराशा नीरधर से,
        प्रतिच्छायित अश्रु-सर में,
        मधुप-मुखर-मरंद-मुकुलित,
        मैं सजल जलजात रे मन!"
- जयशंकर प्रसाद

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 बीती विभावरी जाग री!
इस महीने :
'काल का वार्षिक विलास'
नाथूराम शर्मा 'शंकर'


सविता के सब ओर मही माता चकराती है,
घूम-घूम दिन, रात, महीना वर्ष मनाती है,
कल्प लों अन्त न आता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

छोड़ छदन प्राचीन, नये दल वृक्षों ने धारे,
देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन
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इस महीने :
'ओ माँ बयार'
शान्ति मेहरोत्रा


सूरज को, कच्ची नींद से
जगाओ मत।
दूध-मुँहे बालक-सा
दिन भर झुंझलायेगा
मचलेगा, अलसायेगा
रो कर, चिल्ला कर,
घर सिर पर उठायेगा।
आदत बुरी है यह
..

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इस महीने :
'आए दिन अलावों के'
इन्दिरा किसलय


आए दिन
जलते हुए, अलावों के !!

सलोनी सांझ
मखमली अंधेरा
थमा हुआ शोर
हर ओर
जी उठे दृश्य
मनोरम गांवों के !!

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