अप्रतिम कविताएँ
काहे री नलिनी तूं कुमिलानी
काहे री नलिनी तूं कुमिलानी ।
तेरे ही नालि सरोवर पानीं ॥
जल में उतपति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास ।
ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि ॥
कहे 'कबीर' जे उदकि समान, ते नहिं मुए हमारे जान ।
- कबीरदास
विषय:
जीवन (37)
प्रकृति (38)
अध्यात्म दर्शन (34)

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जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता

इस शहर के लोगों के पास
जो छाता है
उसमें

..

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कभी-कभी लगता है
जैसे घर की पक्की छत, दीवारें, चौखटें
मेरी गरम साँसों से पिघल कर
मोम-सी बह गई हैं।

केवल ये खिड़कियाँ-दरवाजे जैसे
कभी ..

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..

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