अप्रतिम कविताएँ
शून्य कर दो
मुझको फिर से शून्य कर दो
तुम्हारे योग से ही तो पूर्ण हुआ था
फिर भूल गया
मेरा अस्तित्व था नगण्य
तुमसे जुड़े बिन
नए अंकों से मिल कर
मैंने मान लिया था स्वयं को
पूर्ण से भी कुछ अधिक
आज जब अन्तर्मन से भाग न सका
तो बोध हुआ ये
कि तुमने ही तो इस निष्प्राण को
जीवन दिया था
आत्म-ग्लानि से होकर विचलित
कर रहा हूँ तुमसे विनती
मुझको फिर से शून्य कर दो
हो सकूँ यदि मैं परिष्कृत
फिर भले तुम पूर्ण कर दो
पर आज मुझको शून्य कर दो
- विनीत मिश्रा
विषय:
भक्ति और प्रार्थना (30)
अध्यात्म दर्शन (34)

काव्यालय को प्राप्त: 23 Apr 2014. काव्यालय पर प्रकाशित: 7 Jun 2018

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युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?

हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
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किलकारी भरते ..

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ड्रोन गगन में, सिग्नल ज़मीन पर,
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