आज फिर शाम हुई और तुम नहीं आये
आसमां की लाल बिंदी
छूने चली भौहें क्षितिज की
और कुछ झोंके हवा के
ढेरों भीगे पल ले आये
पर तुम नहीं आये
चल पड़ा ये मन अचानक
फिर उसी पेड़ के नीचे से गुज़रा
कुछ सूखे पत्ते पड़े थे नीचे
और एक पहचानी खुश्बू आ लिपटी
वैसा ही एक पत्ता कबसे मेरे
सपनों के पास रखा है
कभी रेत की सूखी आँधी में
जाने क्यों मचल उठता है
उड़ता है गोल गोल और
उस खुश्बू से जा उलझता है
जैसे उलझा करते थे कभी
झूठी कहानियों पे हम भी
आज पत्ते क्यों चुपचाप पड़े हैं
कैसे उस खुश्बू को समझायें
शाम वही पर तुम नहीं आये
गुज़रा अभी मेरे पास से एक क्षण
हल्की सी दस्तक दे गया वो
गुनगुना रहा था वही धुन जिसपे
हम दोनों साथ चले थे कभी
कितने बेसुरे लगते थे तुम
मेरा सुर हँसता था तुम पर
आज भी वो ढुँढ रहा तुम्हें
अब कैसे उस सुर को समझायें
शाम हुई तुम क्यों नहीं आये