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रोशनी
रात, हर रात बहुत देर गए,
तेरी खिड़की से, रोशनी छनकर,
मेरे कमरे के दरो-दीवारों पर,
जैसे दस्तक सी दिया करती है।
मैं खोल देता हूँ चुपचाप किवाड़,
रोशनी पे सवार तेरी परछाई,
मेरे कमरे में उतर आती है,
सो जाती है मेरे साथ मेरे बिस्तर पर।
-
मधुप मोहता
काव्यपाठ:
नूपुर अशोक
Madhup Mohta
Email :
[email protected]
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गांव
रोशनी
इस महीने :
'काल का वार्षिक विलास'
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सविता के सब ओर मही माता चकराती है,
घूम-घूम दिन, रात, महीना वर्ष मनाती है,
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देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन
..
पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
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..
पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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..
पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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