अप्रतिम कविताएँ
नियति
रात की दस्तक दरवाज़े पर है
आज का दिन भी बीत गया है
कितना था उजाला फिर भी फिर से
अन्धियारा ही जीत गया है
एकान्त की चादर ओढ़ कर फिर से
मैं खुद में खोया जाता हूँ
आँखों के सामने यादों के रथ पर
मेरा ही अतीत गया है
सन्नाटों के गुन्जन में दबकर
अपनी ही आवाज़ नहीं आती मुझको
आँखों की सरहद पर लड़ता
आँसू भी अब जीत गया है
टूटे दर्पण के सामने बैठकर
मैं स्वयं को खोज रहा हूँ
यूँ ही बैठे बैठे जाने
कितना अरसा बीत गया है ... ॥
- अरिफ खान
Arif Khan
email: arif dot khan at sbi dot
Arif Khan
email:
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चिराग जैन


आदेशों का दास नहीं है शाखा का आकार कभी,
गमले तक सीमित मत करना पौधे का संसार कभी।

जड़ के पाँव नहीं पसरे तो छाँव कहाँ से पाओगे?
जिस पर पंछी घर कर लें वो ठाँव कहाँ से लाओगे?
बालकनी में बंध पाया क्या, बरगद का ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...

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              लोक धूमिल रँग दिया अनुराग से,
              मौन जीवन भर दिया मधु राग से,
              दे दिया संसार सोने का सहज
              जो मिला करता बड़े ही भाग से,
कौन तुम मधुमास-सी अमराइयाँ महका गयी हो!

             वीथियाँ सूने हृदय की ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...

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भाग 2 मूल तरकीब

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