अप्रतिम कविताएँ
कोयल का सितार
एक मस्त कोयल थी, हरदम, फुदका करती डाली-डाली,
श्याम-सलोनी, मन की चंचल, ऊँचे सुर में गाने वाली।

मधुर कण्ठ का बड़ा गर्व था, काले रंग पर बड़ा नाज़ था,
सचमुच मीठा गाती थी वह, गाने का अच्छा रियाज़ था।

एक बार वह उड़ते उड़ते, उड़ते ही उड़ते मस्ती में,
जंगल के कुछ बाहर आकर, पहुँची अनजानी बस्ती में।

बस्ती में टीले के ऊपर, सुन्दर सा इक छोटा घर था,
गूँज रहा संगीत जहाँ पर, लहराता सितार का स्वर था।

जैसे कोई जादू कर दे, जैसे चुम्बक लोहा खींचे,
उस सितार की स्वरलहरी से, खिंचकर कोयल आई नीचे।

खिड़की पर जा बैठी कोयल, देखा उसने दृश्य निराला,
आँख मूँद संगीत शिरोमणि, द्रुत में बजा रहे थे झाला।

झूम उठी कोयल तो सुनकर, हालत का वर्णन क्या करना
कानों पर बहता हो जैसे, मधुर सुरों का निर्मल झरना।

कुछ बेसुध सी, खोई सी कुछ, कुछ सोई कुछ जगी-जगी सी,
उस सितार के जादू में वह, घंटों बैठी रही ठगी सी।

पूरा राग बजाकर अपना, कोने में रखकर सितार को,
चले गए संगीत शिरोमणि, बंद कर गए खुले द्वार को।

कोयल झट खिड़की से उतरी, डर-डर कर सितार तक आई,
कैसे बजता है यह बाजा, बेचारी कुछ समझ न पाई।

कभी उसे आगे से देखे, कभी फुदक कर देखे पीछे,
कभी उड़े, बैठे खूंटी पर, कभी तार पर बैठे नीचे।

आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, देखभाल जब काफी हो ली,
असमंजस में घिरी हुई वह, आखिर उस सितार से बोली --

फिर बजो ज़रा ओ साज़, तुम बजो ज़रा,
फिर गूँजे वह आवाज़, तुम बजो ज़रा।

मैं भूल गई अपना गाना, फिर से तुम मुझको दिखलाना,
अपना मीठा अंदाज़, फिर बजो ज़रा।

सितार
अपने आप नहीं बजता हूँ, खुद ही बजना मुझे न आता,
तभी निकलते हैं सुर मीठे, मुझको जब कोई और बजाता।

कोयल
सचमुच मधुर-मधुर सुर निकले, या मैं देख रही थी सपना,
तुम हो कौन, बने हो कैसे, प्यारे नाम बताओ अपना।

सितार
लकड़ी तूंबा तार मिलाकर, होता मेहनत से तैयार,
मीठे राग सुनाता हूँ मैं, सब कहते हैं मुझे सितार।

कोयल
क्या मै तुम्हे बजा सकती हूँ, गा सकती हूँ राग झिंझोटी,
मगर बजाऊँगी मैं कैसे, मैं हूँ तुमसे बेहद छोटी।

कुछ आहट सी हुई द्वार पर, सुनकर वह कोयल घबराई,
उड़ी फुर्र से फौरन ऊपर, झट खिड़की के बाहर आई।

लगी सोचने अपने मन में, ऐसा एक सितार बनाऊँ
सुना सकूँ अपने बच्चों को, जिसे घोंसले में ले जाऊँ।

गायन तो आता है मुझको, वादन भी यदि आ जाएगा
कहलाऊँगी संगीत-विशारद, नाम हर तरफ छा जाएगा।

मगर बनाऊँगी मैं कैसे, मुझको नहीं बनाना आता
कोई होता कलाकार जो, साज बनाना मुझे सिखाता।

कुछ-कुछ मुझको याद आ रहा, क्या बोला था भला सितार --
लकड़ी तूंबा तार मिलाकर, होता मेहनत से तैयार।

अब सितार अपना बनाएगी, यह था कोयल का मंसूबा
उसे चाहिए थोड़ी लकड़ी, लंबा तार और एक तूंबा।

मन में पक्का निश्चय करके, भरके एक लंबी सी सास,
उड़ते-उड़ते लकड़ी लेने, कोयल गई पेड़ के पास।

कहा पेड़ ने -- बढ़ई बुलाओ, मन चाहे जितनी ले लो।
कहा बेल ने -- प्यारी कोयल, लो तूंबा, खाओ खेलो।

राजी हुए मदद करने को, इसी तरह से बढ़ई - लुहार,
कहा सभी ने -- हमें सुनाना, पूरा जब बन जाए सितार।

कोयल बोली -- बहुत ठीक है, इसमें कैसी बाधा है,
बच्चों से पहले सुनाऊँगी, मेरा पक्का वादा है।

पेड़
ऐसा वादा मत कर कोयल, बच्चों का हक पहला है।
लुहार
बच्चों की किलकारी से ही, यह संसार रुपहला है

बढ़ई
हाँ कोयल यह बात सही है, पहले अपने बच्चे हैं।
बेल
वे सितार जी भर कर सुन लें, फिर हम चाची-चच्चे हैं।

बढ़ई ने काटी पेड़ से लकड़ी, फिर लुहार ने खींचे तार,
सूखा तूंबा किया खोखला, तीनों चीज़ हुई तैयार।

सात तार लकड़ी में लगाए, नीचे तूंबा जोड़ दिया,
तार बाँध कर हर खूँटी से, उसका कान मरोड़ दिया।

बढ़ई ने अपने कौशल से, सज्जा भी उसकी कर दी,
जो भी खाली जगह दिखी, उसने नक्काशी से भर दी।

पंख नचा कर लगी झूमने, कोयल का बन गया सितार
खुशियों से फूली न समाए, देखे उसको बारम्बार।

बड़े जतन से थामा उसने, पंख मोड़ कर छेड़ा साज़,
सुर जंगल में लगे गूंजने, निकली मधुर-मधुर आवाज़।

कोयल खुश थी, इतनी खुश थी, कितनी खुश थी, कहा न जाय,
मुँह से कोई बोल न फूटे, झर झर झर आँसू बरसाय।

आँसू ज्यों ही गिरे साज़ पर, बंद हुआ उसका बजना,
कोयल का जी धक्क रह गया, कैसी है यह दुर्घटना!

खींचे तार घुमाई खूंटी, हर कोशिश बेकार गई,
किसी तरह भी नहीं बजा वह, कोयल थक कर हार गई।

कुछ पहले तो बहे खुशी में, आँसू अब निकले गम के,
कोयल रोती सुबक-सुबक कर, हिचकी लेती थम-थम के।

जब नन्हे सितार ने देखा, कोयल है अति दुखियारी
स्नेहमयी वाणी में बोला, यों मत रो, कोयल प्यारी।

मैं हूँ बिल्कुल ठीक, बजूँगा, जब भी मुझे बजाओगी,
मुझसे बातें नहीं करीं तो, ऐसा ही फल पाओगी!

मेरा भी तो मन होता है, तुमसे थोड़ी बात करूँ
कुछ बतलाऊँ अपने जी की, कुछ मैं तुमसे ज्ञात करूँ।

कोयल
करना माफ सितार मुझे तुम, मैं खुशियों में झूल गई
सबसे प्यारे दोस्त, तुम्ही से, बातें करना भूल गई।

अगर न बजते तो मर जाती, सचमुच डर के मारे मैं
गुस्सा छोड़ बताओ मुझको, सबकुछ अपने बारे में।

सितार
अबसे कभी न रूठूँगा मैं, गुस्सा करके पछताया
सुनो बताता हूँ मैं तुमको, कैसे धरती पर आया।

जंगल में था एक शिकारी, नई चीज़ उसने भांपी
ज्यों ही छूटा तीर धनुष से, तनी हुई डोरी कांपी।

डोरी के कम्पन से निकली, हल्की मधुर-मधुर आवाज़
बारम्बार खींचकर छोड़े, मग्न हो गया तीरंदाज़।

कोयल, मानव की दुनिया में, नई बात उस रोज़ हुई
ध्यान गया मीठी ध्वनियों पर, तार-वाद्य की खौज हुई।

कोयल
बड़े पते की बात बताई, तुम तो हो पूरे दादू
समझ गई अब समझ गई मैं, ये आवाज़ों का जादू।

सितार
आवाज़ के इस जादू की, गाथा बड़ी निराली है
पहले तार-वाद्य से अब तक, कितनी मंज़िल पा ली है।

धीरे-धीरे इन्सानों ने, सुर का रस्ता मोड़ दिया
लंबी लकड़ी एक कटोरा, इन दोनों को जोड़ दिया।

लकड़ी के दोनों छोरों पर, लंबा तार लगाते थे
उंगली से वह तार खींचकर, मीठे राग बजाते थे।

आगे चल कर यह भी जाना, अनुभव की गहराई से
ध्वनि में बड़ा फर्क पड़ता है, तारों की लम्बाई से।

स्वर-मंडल देखा ही होगा, वह तो मेरा भाई है
उसमें जितने तार लगे हैं, अलग-अलग लम्बाई है।

इस कारण हर एक तार से, अलग-अलग सुर आते हैं
ढंग से अगर बजाए कोई, मन को बहुत लुभाते हैं।

एक तार की वीणा आई, धीरे-धीरे तार बढ़े
अलग-अलग तारों के कारण, अलग-अलग ही नाम पड़े।

कहा त्रितंत्री वीणा उसको, जिसमें तीन लगाए तार
बीता समय, उसी वीणा को, सब पुकारने लगे सितार।

भाई बहन बहुत हैं मेरे, दुनिया में करते आमोद
तानपुरा है, सुरबहार है, हैं रबाब, संतूर, सरोद।

और बताओ क्या बतलाऊँ, बातें अभी घनेरी हैं
कुछ तो हैं भाई बहनों की, और बहुत सी मेरी हैं।

कोयल
साथ रहेंगे बतियाएंगे, किन्तु अभी तो जाना है
पेड़, बढ़ई, लौहार, बेल को, कुछ संगीत सुनाना है।

फिर सितार को लेकर कोयल, क्रमशः सबके पास गई
बच्चे थे हर जगह साथ में, सबके मन की फांस गई।

पेड़ को राग वसन्त सुनाया, और बढ़ई को राग भैरवी
गई बेल के पास, बेल ने, राग देस की करी पैरवी।

पर लुहार बोला - ओ कोयल! तूने याद रखे सब वादे
एक राग बस अच्छा लगता, मुझको बागेश्री सुनवा दे।

उस सितार वाली कोयल की, फैली जंगल में मशहूरी
और इस तरह प्यारे बच्चों, कथा हो गई अपनी पूरी।



- अशोक चक्रधर
अशोक चक्रधर का फ़ेसबुक पेज और वेबसाइट

काव्यालय पर प्रकाशित: 9 Nov 2018

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अनुवाद ~ प्रियदर्शन

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होलोकॉस्ट में एक कविता
~ प्रियदर्शन

लेकिन इस कंकाल सी लड़की के भीतर एक कविता बची हुई थी-- मनुष्य के विवेक पर आस्था रखने वाली एक कविता। वह देख रही थी कि अमेरिकी सैनिक वहाँ पहुँच रहे हैं। इनमें सबसे आगे कर्ट क्लाइन था। उसने उससे पूछा कि वह जर्मन या अंग्रेजी कुछ बोल सकती है? गर्डा बताती है कि वह 'ज्यू' है। कर्ट क्लाइन बताता है कि वह भी 'ज्यू' है। लेकिन उसे सबसे ज़्यादा यह बात हैरानी में डालती है कि इसके बाद गर्डा जर्मन कवि गेटे (Goethe) की कविता 'डिवाइन' की एक पंक्ति बोलती है...

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मगर कहीं रुके नहीं वसन्त के चपल चरण।

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