अप्रतिम कविताएँ

इक कविता
कुछ पल के उथले चिंतन से
कभी जनमती है इक कविता
वर्षों कवि के अंतर्मन में
कभी पनपती है इक कविता

दो नयनों में बन अश्रु-बिन्द
कभी चमकती है इक कविता
दो अधरों की मुस्कान बनी
कभी ठुमकती है इक कविता

सूने बिस्तर की सिलवटों में
कभी सिसकती है इक कविता
दो बाहों के आलिंगन में
कभी सिमटती है इक कविता

पूजा के श्रद्धा सुमनों सी
कभी महकती है इक कविता
क्रोधाग्नि की ज्वाला बन कर
कभी धधकती है इक कविता

वात्सल्य भरी, ममतामय सी
कभी छलकती है इक कविता
आवेश ईर्ष्या द्वेष भरी
कभी उफ़नती है इक कविता

मेरे मत से उत्पन्न हो कर
मेरे भावों से निखर सँवर
तेरे निष्ठुर मन तक भी क्या
कभी पहुँचती है इक कविता ?
- अर्चना गुप्ता
Archana Gupta
Email : [email protected]
विषय:
सृजन (9)

काव्यालय पर प्रकाशित: 1 Apr 2016

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 इक कविता
 फिर मन में ये कैसी हलचल ?
इस महीने :
'दरवाजे में बचा वन'
गजेन्द्र सिंह


भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।

नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...

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कल मानसून की पहली बरसात हुई
और आज यह दरवाज़ा
ख़ुशी से फूल गया है

खिड़की दरवाज़े महज़ लकड़ी नहीं
विस्थापित जंगल होते हैं

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टहनियों पर ...
..

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जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता

इस शहर के लोगों के पास
जो छाता है
उसमें

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कभी-कभी लगता है
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..

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