अप्रतिम कविताएँ
चिकने लम्बे केश
चिकने लम्बे केश
काली चमकीली आँखें
खिलते हुए फूल के जैसा रंग शरीर का
फूलों ही जैसी सुगन्ध शरीर की
समयों के अन्तराल चीरती हुई
अधीरता इच्छा की
याद आती हैं ये सब बातें
अधैर्य नहीं जागता मगर अब
इन सबके याद आने पर

न जागता है कोई पश्चाताप
जीर्णता के जीतने का
शरीर के इस या उस वसन्त के बीतने का

दुःख नहीं होता
उलटे एक परिपूर्णता-सी
मन में उतरती है

जैसे मौसम के बीत जाने पर
दुःख नहीं होता
उस मौसम के फूलों का !
- भवानीप्रसाद मिश्र
साहित्य अकादेमी पुरस्कृत संकलन "बुनी हुई रस्सी" से

एमज़ोन पर उपलब्ध
विषय:
जीवन (37)
बुढ़ापा बीमारी (9)

काव्यालय पर प्रकाशित: 17 May 2019

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भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।

नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...

..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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और आज यह दरवाज़ा
ख़ुशी से फूल गया है

खिड़की दरवाज़े महज़ लकड़ी नहीं
विस्थापित जंगल होते हैं

मुझे लगा, मैं पेड़ों के बीच से आता-जाता हूँ
टहनियों पर ...
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'छाता '
प्रेमरंजन अनिमेष


जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता

इस शहर के लोगों के पास
जो छाता है
उसमें

..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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