अप्रतिम कविताएँ
अधूरी साधना
प्रियतम मेरे,
सब भिन्न भिन्न बुनते हैं
गुलदस्तों को,
भावनाओं से,
विचारों से।
मैं तुम्हे बुनूँ
अपनी साँसों से।
भावनायें स्थिर हो जाएँ,
विचारधारा भी,
होंठ भी मौन रहे -
और हर श्वास
नित तुम्हारा नाम कहे -
और तुम बुनते रहो।

एक घड़ी आएगी फिर
मेरी बंद पलकों के सम्मुख
तुम निराकार साकार होगे।
तुम बाँहों में अपनी,
मेरी साँसों को समेट लोगे।
फिर न होगा मिलना,
न बिछड़ना, न जन्म-मरण,
न मैं।
सिर्फ तुम मेरे प्रियतम -
अपना स्वरूप पाकर -
अनंत।
- वाणी मुरारका
Vani Murarka
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विषय:
प्रेम (60)

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