मोतीयों पर टहलते हुए
"समर्पित सत्य समर्पित स्वप्न" समीक्षा

पूनम दीक्षित

'समर्पित सत्य समर्पित स्वप्न' एक काव्य यात्रा है| एक अहसास से दूसरे अहसास तक धीरे धीरे टहलते हुए कोई आपा धापी नहीं, बवंडर नहीं। यह टहलना एक निश्चित संवृद्धि और मंजिल की ओर गतिशील है। संवृद्धि भावों की, संवृद्धि अनुभूति की। कुछ भी बलात लिखने के लिए लिखा सा नहीं है। कवि का उदगार ईमानदारी से प्रस्तुत है कि “सत्य और स्वप्न के बीच कोई ज्यामितीय रेखा नहीं है। इनके बीच की सरहद बादल की तरह चलायमान है।”

प्रथम अध्याय में सृजन का सूत्र एक एक मोती पिरोते चलता है। “मेरी कविता“ में आशा और आकांक्षा के स्वप्न तरल हैं, मृदु हैं, स्नेह सिक्त किरण से आच्छादित हैं। "ऐसी लगती हो" में मनोहारी छवि वर्णित है जो निकट तो है पर पास नहीं, जो सौम्य है, प्रशांत है, चंचल थिरकन की झलक लिये भी है। आखिरी पंक्ति अत्यन्त अनूठा है जहाँ अमूर्त धरातल से सहज उतरकर कवि कहते है “सत्य कहूँ, संक्षिप्त कहूँ, मुझको तुम अच्छी लगती हो“ और कविता मुस्कुरा उठती है। आगे कविताओं में भाव और गहराता है, नाता दृढ़ता की ओर ठहराव की ओर अग्रसर होता है। एक एक शब्द का गुंफन एक एक कदम की ओर इंगित है, मानो प्यार एक यात्रा है और पथिक सब उलीच देने को आतुर है।

कविताओं के बीच बीच में मुक्तक प्रभावकारी हैं। हर कविता एक मोती है तो मुक्तक इस हार की डिज़ाइन में नई व्यंजना भर रहे हैं। इनमें कवि अवगुंठन के स्तर अपनी दास्ताँ कभी छुपाते हैं कभी सुनाते हैं।

आठवीं कविता तक आते आते “बिखरते नाते“ में यह पंक्ति दर्द की छटपटाहट में चुप सा कर देती है “संग छूटा साथ छूटा, साथ का विश्वास टूटा” – साथ के विश्वास का टूटना खल जाता है पर कवि सिर्फ स्वप्न द्रष्टा नहीं सत्यानवेषी भी हैं । पहले सत्य समर्पित करते हैं फिर स्वप्न। अगली कविता “मुखौटे“ में कहते हैं – “यह संसार मुखौटों का है नित्य नया मुखड़ा बदलेगा”। यहीं से परिपक्वता, स्वप्नों की तरलता से सत्य के धरातल पर अनायास ही बढ़ जाती है। दर्द के दायरे”, “वेदना गीत”, “मैं जिंदा रहूँगा” में अतीत के लम्हों में डूबते उतराते, अपने ऊहापोह से बाहर निकलने की यात्रा परिलक्षित होती है। कवि वेदना से भागते नहीं उसे आत्मसात कर पाथेय बनाते हैं।

यह पंक्ति देखें “जाने कितनी और किश्तियाँ डूबी होंगी तूफ़ानों में” -- भावों का प्रसार उसे आगे बढ़ाता है व्यष्टि से उसकी यात्रा समष्टि की ओर है तभी “मेरे सपनों“ में कहते हैं – “तुमसे कोई गिला नहीं है मेरे अपनों, शून्य सुशोभित मेरे सपनों”। अब उसका दर्द पराएपन से आगे निकल गया है। सपनों की शून्यता अब एक हस्ताक्षर बन गई है। वह रुकता नहीं आगे आकाश तक पहुंचना चाहता है जिसे अगले अध्यायों में साफ साफ देखा जा सकता है। “चलो समय के साथ चलेंगे, परिवर्तन होगा धरती पर। नया ज़माना पैदा होगा बूढ़ी दुनिया की अरथी पर।” अब कवि के स्वप्न में जड़ें निकलने लगी हैं जिसमे विस्तार है, विश्वास है। कहते हैं न कि टूटना कब व्यर्थ होता है, भटकनों में अर्थ होता है।

पहले अध्याय के अंत में “जीवन दीप“ विशिष्ट लगी जिसमें कवि विशाल ब्रह्मांड में विज्ञान के धरातल पर अस्तित्व तलाशता है । यहाँ कोई अश्रु विगलित फिसलन नहीं है, एक अपरिमित स्त्रोत है ऊर्जा का जो विश्वास को कायम रखता है – “यह विशाल ब्रह्मांड, यहाँ मैं लघु हूँ लेकिन हीन नहीं”। शब्दों का चयन संस्कृत निष्ठ परंतु सही परिपेक्ष्य में। जबरदस्ती का पांडित्य प्रदर्शन नहीं।

दूसरा अध्याय ग़ज़लों का है। उनमें एकाकीपन का दंश तो है पर उजालों पर भरोसे की रीत अबूझ नहीं रही। “सांस ये उम्र भर तो चलनी थी” के शेर गाने का मन होता है। “एक उदास शाम और तनहाई”, “बेकली महसूस हो” में भाव अद्वैत को छूता जान पड़ता है। “वक्त बदलेगा, नई तारीख लिखी जाएगी आप अपने हौसलों को आजमा कर देखिए” “मैंने जब जब तुम्हें बुलाया है तुमको अपने करीब पाया है, मेरे जज़्बात मेरी तनहाई और जो भी है, वह पराया है” अब वह दुनियावी हासिल से आगे चला गया है। इस अध्याय के अंत में मखदूम मोइनूद्दीन की ग़ज़ल “आपकी याद आती रही रात भर” पर आम को लेकर ग़ज़ब की पैरोडी रची है। रकम रकम के आम चौसा, सफेदा, दशहरी, अल्फानज़ो पढ़ते पढ़ते जीभ रससिक्त न हो जाए तो क्या बात!! यहाँ एक अलग मिजाज की कविता इस यात्रा में एक मोड़ की सूचना दे देती है जो तीसरे अध्याय में “मेरे मधुवन जीयो जुग जुग“ में उभरती है। मन के ऊहा पोह से आगे बढ़कर व्यष्टि से समष्टि की यात्रा शुरू होती है। मानो नदी अब मैदानी इलाके में विस्तृत पाट के मध्य प्रवहमान है।

तीसरे अध्याय “मेरे मधुवन जीयो जुग जुग” में “बापू का सपना” कविता में गाँधीवाद का समग्र स्वरूप है जिसमें सबका साथ, अनुशासन, विकास, पर्यावरण संरक्षण के साथ जब कहते है “वैज्ञानिक नव युग में भारत का गायन हो, चन्दा के आँगन में अपना चंद्रायन हो“ तो कई धुरियों को जोड़ती एक सार्थक सेतु बनाते हैं। “प्रवासी गीत” बहुत मार्मिक बन पड़ा है। इसमें एक छटपटाहट है, जड़ों की ओर लौटने की अदम्य अभीप्सा है, जहां निर्व्याज प्रेम, माधुर्य है, ममता की स्निग्ध छाँव है, रिश्तों की गर्माहट है, पहचान का एक संसार है। प्रवासी मन की पीड़ा पूरे सच के साथ उभरी है। यह मेरी सबसे पसंदीदा रचना है। इसके तुरंत बाद रच दिया “आवासी गीत” प्रवास की कशिश के बीच आवासी गीत अमरीका मोह के अंधेपन की पट्टी उतारने जैसा है। कड़क अंदाज नहीं, भाषणबाज़ी भी नहीं, ज़बान की तुर्शी भी नहीं एक सधे चुटीले अंदाज वाली सधी हुई अनुभूति से लबरेज। आखिर में स्वीकारोक्ति भी है। आवासी कोई उखड़ा हुआ प्रेत नहीं सेतुबंध का मुख्य अवयव है –“एक द्वार से बाहर जाकर अन्य द्वार से अंदर आए, एक प्रवासी आवासी बन दो देशों में सेतु बनाए। कोई नहीं पराया जग में, यह वसुधा कुटुंब है अपना।“ ऐसा कह कर अपने कथ्य को एक नया शेड देते हैं क्योंकि इसके पूर्व व्यंग्यात्मक शैली में पूरब पश्चिम के मध्य एक दूसरे के प्रति जजमेंटल होने वाली नुकतानज़र व्यंजित रही ।

“वरदान” एक हास्य कविता है जिसमें सभी पुरुषों की भांति पत्नी से छुटकारे के यत्न में और दंडित होता हुआ पति चित्रित है। मनोरंजन के लिए हास्य ठीक है पर व्यक्तिगत रूप से पत्नियों पर पतियों की मुक्तिकामी छवि और उसपर इल्जामात की फेहरिस्त मुझे अच्छी नहीं लगती। पर हाँ अब कवि की रचना का फलक विस्तृत होकर अलग अलग विषयों को चुनता है और सधे तौर पर भावचित्र खींचता है। अगली कविता “साहब जी की नई ज़िंदगी”, “साक्रेटीज़”, “हवलदार था बड़ा मेहनती” सबमें हास्य परिलक्षित है।

इसके अनंतर बालकविता के लिए मैं आपको साधुवाद देती हूँ। जाने क्यों यह पहलू हमारे साहित्य जगत में उपेक्षित है। बच्चों के लिए कविता, कहानी रचना भी हमारी जिम्मेदारी है। इसका अभाव उन्हें अपनी दुनिया, समाज, संस्कृति से काटता चला जा रहा है।

इस अध्याय के अंत में पुनः अंतर्मन की ओर उन्मुख कवि “देव वंदना” , “दुर्गा वंदना” में मानो कहते हैं पूरी धरित्री का चक्कर लगाकर विश्रांति अंततः ईश्वर की पनाह में ही मिलती है ।

एक विशेष आकर्षण की ओर इंगित करना आवश्यक है, पुस्तक में आए चित्र जो अर्थवान हैं, खूबसूरत हैं और बोलते हुए हैं। इन चित्रों पर अलग से और रचनाएं भी लिखी जा सकती हैं। तारों का इनमें खुल कर उपयोग हुआ है। क्षमा कर दें। दो चार तारे मैंने निकाल कर बालों में टाँक लिए हैं।

मैं समीक्षक कतई नहीं, पाठक हूँ, प्रशंसक हूँ। मेरा प्रणाम स्वीकार करें, आशीष दें।

पूनम दीक्षित

काव्यालय को प्राप्त : 19 जून 2020; काव्यालय पर प्रकाशित: 25 सितम्बर 2020


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This Month :
'Ant'
Divya Omkari 'Garima'


jhar-jhar bahate netron se,
kaun saa saty bahaa hogaa?
vo saty banaa aakhir paanee,
jo kaheen naheen kahaa hogaa.

jhalakatee see bechainee ko,
kitanaa dhikkaar milaa hogaa?
baad men soche hai insaan,
pahale andhaa-baharaa hogaa.

talaash kare yaa aas kare,
kis par vishvaas zaraa hogaa?
kitanaa gaharaa hogaa vo dukh,
mRtyu se jo Dhakaa hogaa.

hokar nam phir band ho gaeen,
aa(n)khon ne kyaa sahaa hogaa?
ho jisakaa kShaN-kShaN mRtyu,
ye jeevan deergh lagaa hogaa.

jo maun huaa sah-sahakar maun,
us maun kaa bhed kyaa hogaa?
n gyaat kisee ko bhed vo ab,
vo bhed jo saath gayaa hogaa.

kuchh sheSh naheen isake pashchaat,
Read and listen here...
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