Receive exquisite poems.
श्री हरि गीता सत्रहवां अध्याय

संस्कृत मूल

श्रीमद्भगवद्गीता
सप्तदशोध्याय:

हिन्दी काव्यानुवाद

श्री हरि गीता
सत्रहवां अध्याय

अर्जुन उवाच-
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विता: ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तम: ।।१।।

श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु ।।२।।

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्ध: स एव स: ।।३।।

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसा: ।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जना: ।।४।।

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जना: ।
दम्भाहंकारसंयुक्ता: कामरागबलान्विता: ।।५।।

कर्षयन्त: शरीरस्थं भूतग्राममचेतस: ।
मां चैवान्त:शरीरस्थं तान्विद्ध्यवासुरनिश्चयान् ।।६।।

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रिय: ।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु ।।७।।

आयु: सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धना: |
रस्या: स्निग्धा: स्थिरा हृद्या आहारा: सात्त्विकप्रिया: ।।८।।

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिन: ।
आहारा राजसस्येष्टा दु:खशोकामयप्रदा: ।।९।।

यातयाम गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ।।१०।।

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ।
यष्टव्यमेवेति मन:समाधाय स सात्त्विक: ।।११।।

अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् ।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ।।१२।।

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ।।१३।।

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्राचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ।।१४।।

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहिंत च यत् ।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ।।१५।।

मन:प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह: ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ।।१६।।

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरै: ।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तै: सात्विकं परिचक्षते ।।१७।।

सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत् ।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ।।१८।।

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तप: ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ।।१९।।

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ।।२०।।

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुन:।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ।।२१।।

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ।।२२।।

ऊँ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्राणास्त्रिविध: स्मृत: ।
ब्रह्राणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिता: पुरा ।।२३।।

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतप:क्रिया: ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ता: सततं ब्रह्रावादिनाम् ।।२४।।

तदित्यनभिसंधाय फलं यज्ञतप:क्रिया: ।
दानक्रियाश्च विविधा: क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभि: ।।२५।।

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते ।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्द: पार्थ युज्यते ।।२६।।

यज्ञे तपसि दाने च स्थिति: सदिति चोच्यते ।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ।।२७।।

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ।।२८।।

अर्जुन ने कहा -
करते यजन जो शास्त्रविधि को छोड़ श्रद्धायुक्त हो ।
हे कृष्ण ! उनकी सत्तव, रज, तम कौनसी निष्ठा कहो ॥ १ ॥

श्रीभगवान् ने कहा -
श्रद्धा स्वभावज प्राणियों में पार्थ ! तीन प्रकार से ।
सुन सात्त्विकी भी राजसी भी तामसी विस्तार से ॥ २ ॥

श्रद्धा सभी में सत्तव सम, श्रद्धा स्वरूप मनुष्य है ।
जिसकी रहे जिस भाँति श्रद्धा वह उसी का नित्य है ॥ ३ ॥

सात्त्विक सुरों का, यक्ष राक्षस का यजन राक्षस करें ।
नित भूत प्रेतों का यजन जन तामसी मन में धरें ॥ ४ ॥

जो घोर तप तपते पुरुष हैं शास्त्र-विधि से हीन हो ।
मद दम्भ-पूरित, कामना बल राग के आधीन हो ॥ ५ ॥

तन पंच-भूतों को, मुझे भी - देह में जो बस रहा ।
जो कष्ट देते जान उनको मूढ़मति आसुर महा ॥ ६ ॥

हे पार्थ ! प्रिय सबको सदा आहार तीन प्रकार से ।
इस भाँति ही तप दान मख भी हैं, सुनो विस्तार से ॥ ७ ॥

दें आयु, सात्त्विकबुद्धि, बल, सुख, प्रीति एवं स्वास्थ्य भी ।
रसमय चिरस्थिर हृद्य चिकने खाद्य सात्त्विक प्रिय सभी ॥ ८ ॥

नमकीन, कटु, खट्टे, गरम, रूखे व दाहक, तीक्ष्ण ही ।
दुख-शोक-रोगद खाद्य, प्रिय हैं राजसी को नित्य ही ॥ ९ ॥

रक्खा हुआ कुछ काल का, रसहीन बासी या सड़ा ।
नर तामसी अपवित्र भोजन भोगते जूठा पड़ा ॥ १० ॥

फल-आश तज, जो शास्त्र-विधिवत्, मानकर कर्तव्य ही ।
अतिशान्त मन करके किया हो, यज्ञ सात्त्विक है वही ॥ ११ ॥

हे भरतश्रेष्ठ ! सदैव ही फल-वासना जिसमें बसी ।
दम्भाचरण हित जो किया वह यज्ञ जानो राजसी ॥ १२ ॥

विधि-अन्नदान-विहीन जो, बिन दक्षिणा के हो रहा ।
बिन मन्त्र-श्रद्धा, यज्ञ जो वह तामसी जाता कहा ॥ १३ ॥

सुर द्विज तथा गुरु प्राज्ञ पूजन ब्रह्मचर्य सदैव ही ।
शुचिता अहिंसा नम्रता तन की तपस्या है यही ॥ १४ ॥

सच्चे वचन, हितकर, मधुर उद्वेग-विरहित नित्य ही ।
स्वाध्याय का अभ्यास भी, वाणी-तपस्या है यही ॥ १५ ॥

सौम्यत्व, मौन, प्रसाद मन का, शुद्ध भाव सदैव ही ।
करना मनोनिग्रह सदा मन की तपस्या है यही ॥ १६ ॥

श्रद्धा सहित हो योगयुत फल वासनाएँ तज सभी ।
करते पुरुष, तप ये त्रिविध, सात्त्विक तपस्या है तभी ॥ १७ ॥

सत्कार पूजा मान के हित दम्भ से जो हो रहा ।
वह तप अनिश्चित और नश्वर, राजसी जाता कहा ॥ १८ ॥

जो मूढ़-हठ से आप ही को कष्ट देकर हो रहा ।
अथवा किया पर-नाश-हित, तप तामसी उसको कहा ॥ १९ ॥

देना समझ कर अनुपकारी को दिया जो दान है ।
वह दान सात्त्विक देश काल सुपात्र का जब ध्यान है ॥ २० ॥

जो दान प्रत्युपकार के हित क्लेश पाकर के किया ।
है राजसी वह दान जो फल आश के हित है दिया ॥ २१ ॥

बिन देश काल सुपात्र देखे जो दिया बिन मान है ।
अथवा दिया अवहेलना से तामसी वह दान है ॥ २२ ॥

शुभ ॐ तत् सत् ब्रह्म का यह त्रिविध उच्चारण कहा ।
निर्मित इसीसे आदि में हैं, वेद ब्राह्मण मख महा ॥ २३ ॥

इस हेतु कहकर ॐ होते नित्य मख तप दान भी ।
सब ब्रह्मनिष्ठों के सदा शास्त्रोक्त कर्म-विधान भी ॥ २४ ॥

कल्याण-इच्छुक त्याग फल ’तत्’ शब्द कहकर सर्वदा ।
तप यज्ञ दान क्रियादि करते हैं विविध विध से सदा ॥ २५ ॥

सद् साधु भावों के लिए ’सत्’ का सदैव प्रयोग है ।
हे पार्थ ! उत्तम कर्म में ’सत्’ शब्द का उपयोग है ॥ २६ ॥

’सत्’ ही कहाती दान तप में यज्ञ में दृढ़ता सभी ।
कहते उन्हें ’सत्’ ही सदा उनके लिए जो कर्म भी ॥ २७ ॥

सब ही असत् श्रद्धा बिना जो होम तप या दान है ।
देता न वह इस लोक में या मृत्यु पर कल्यान है ॥ २८ ॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु
ब्रह्मविद्यायां योगशास्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय: ॥ ३ ॥
सत्रहवां अध्याय समाप्त हुआ ॥ ३ ॥

- श्री दीनानाथ भार्गव दिनेश

- वेद व्यास
- अनुवाद : श्री दीनानाथ भार्गव दिनेश

***
वेद व्यास
's other poems on Kaavyaalaya

 श्री हरि गीता तीसरा अध्याय
 श्री हरि गीता सत्रहवां अध्याय
'बेकली महसूस हो तो'
विनोद तिवारी

बेकली महसूस हो तो गुनगुना कर देखिये।
दर्द जब हद से बढ़े तब मुस्कुरा कर देखिये।

रूठते हैं लोग बस मनुहार पाने के लिए
लौट आएगा, उसे फिर से बुला कर देखिये।

आपकी ही याद में शायद वह हो खोया हुआ
पास ही होगा कहीं, आवाज़ देकर देखिये।

हारती है बस मोहब्बत ही ख़ुदी के खेल में
हार कर अपनी ख़ुदी, उसको...

पूरी ग़ज़ल यहां पढ़ें
This Month :
'Pukaar'
Anita Nihalani


koee kathaa anakahee n rahe
vyathaa koee anasunee n rahe,
jisane kahanaa-sunanaa chaahaa
vaaNee usakee mukhar ho rahe!

ek prashn jo soyaa bheetar
ek jashn bhee khoyaa bheetar,
jisane use jagaanaa chaahaa
..

Read and listen here...
random post | poem sections: shilaadhaar yugavaaNee nav-kusum kaavya-setu | pratidhwani | kaavya-lekh
contact us | about us
Donate

a  MANASKRITI  website