अप्रतिम कविताएँ
राष्ट्र वसन्त

पिकी पुकारती रही, पुकारते धरा-गगन;
मगर कहीं रुके नहीं वसन्त के चपल चरण।

असंख्य काँपते नयन लिये विपिन हुआ विकल;
असंख्य बाहु हैं विकल, कि प्राण हैं रहे मचल;
असंख्य कंठ खोलकर 'कुहू कुहू' पुकारती;
वियोगिनी वसन्त की दिगन्त को निहारती।

वियोग का अनल स्वयं विकल हुआ निदाघ बन;
मगर कहीं रुके नहीं वसन्त के चपल चरण।

वसन्त एक दूत है, विराम जानता नहीं,
पुकार प्राण की सुना गया, कहीं पता नहीं;
वसन्त एक वेग है, वसन्त एक गान है।
जगत्-सरोज में सुगन्ध का मदिर विहान है।

कि प्रीति के पराग का वसन्त एक जागरण,
कभी कहीं रुके नहीं वसन्त के चपल चरण।

वसन्त की पुकार है- 'धरा सुहागिनी रहे,
प्रभा सुहासिनी रहे, कली सुवासिनी रहे;
कि जीर्ण-शीर्ण विश्व का हृदय सदा तरुण रहे;
हरीतिमा मिटे नहीं, कपोल चिर अरुण रहें।

कि जन्म के सुहास का रुके नहीं कहीं सृजन,
इसीलिए विकल सदा वसन्त के चपल चरण।

शिशिर-समीर से कभी वसन्त है गला नहीं;
निदाघ-दाह से कभी डरा नहीं, जला नहीं;
विनाश-पंथ पर पथिक बसन्त है अजर-अमर;
नवीन कल्पना, नवीन साधना, नवीन स्वर ।

कि पल्लवित नवीन जन्म पा रहा सदा मरण;
नवीन छंद रच रहे वसन्त के चपल चरण।
- रामदयाल पाण्डेय
काव्यपाठ: शंकर मुनि राय
विषय:
प्रकृति (41)
वसन्त (5)

काव्यालय पर प्रकाशित: 16 Feb 2024

***
सहयोग दें
विज्ञापनों के विकर्षण से मुक्त, काव्य के सुकून का शान्तिदायक घर... काव्यालय ऐसा बना रहे, इसके लिए सहयोग दे।

₹ 500
₹ 250
अन्य राशि
इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा


कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।

हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।

जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'तुम तो पहले ऐसे ना थे'
सत्या मिश्रा


तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
संग्रह से कोई भी रचना | काव्य विभाग: शिलाधार युगवाणी नव-कुसुम काव्य-सेतु | प्रतिध्वनि | काव्य लेख
सम्पर्क करें | हमारा परिचय
सहयोग दें

a  MANASKRITI  website