पिकी पुकारती रही, पुकारते धरा-गगन;
मगर कहीं रुके नहीं वसन्त के चपल चरण।
असंख्य काँपते नयन लिये विपिन हुआ विकल;
असंख्य बाहु हैं विकल, कि प्राण हैं रहे मचल;
असंख्य कंठ खोलकर 'कुहू कुहू' पुकारती;
वियोगिनी वसन्त की दिगन्त को निहारती।
वियोग का अनल स्वयं विकल हुआ निदाघ बन;
मगर कहीं रुके नहीं वसन्त के चपल चरण।
वसन्त एक दूत है, विराम जानता नहीं,
पुकार प्राण की सुना गया, कहीं पता नहीं;
वसन्त एक वेग है, वसन्त एक गान है।
जगत्-सरोज में सुगन्ध का मदिर विहान है।
कि प्रीति के पराग का वसन्त एक जागरण,
कभी कहीं रुके नहीं वसन्त के चपल चरण।
वसन्त की पुकार है- 'धरा सुहागिनी रहे,
प्रभा सुहासिनी रहे, कली सुवासिनी रहे;
कि जीर्ण-शीर्ण विश्व का हृदय सदा तरुण रहे;
हरीतिमा मिटे नहीं, कपोल चिर अरुण रहें।
कि जन्म के सुहास का रुके नहीं कहीं सृजन,
इसीलिए विकल सदा वसन्त के चपल चरण।
शिशिर-समीर से कभी वसन्त है गला नहीं;
निदाघ-दाह से कभी डरा नहीं, जला नहीं;
विनाश-पंथ पर पथिक बसन्त है अजर-अमर;
नवीन कल्पना, नवीन साधना, नवीन स्वर ।
कि पल्लवित नवीन जन्म पा रहा सदा मरण;
नवीन छंद रच रहे वसन्त के चपल चरण।