अप्रतिम कविताएँ
सखि, वे मुझसे कहकर जाते (यशोधरा)
सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?

               मुझको बहुत उन्होंने माना
               फिर भी क्या पूरा पहचाना?
               मैंने मुख्य उसी को जाना
               जो वे मन में लाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

               स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
               प्रियतम को, प्राणों के पण में,
               हमीं भेज देती हैं रण में -
               क्षात्र-धर्म के नाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

               हुआ न यह भी भाग्य अभागा,
               किसपर विफल गर्व अब जागा?
               जिसने अपनाया था, त्यागा;
               रहे स्मरण ही आते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

               नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
               पर इनसे जो आँसू बहते,
               सदय हृदय वे कैसे सहते?
               गये तरस ही खाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

               जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,
               दुखी न हों इस जन के दुख से,
               उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से?
               आज अधिक वे भाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

               गये, लौट भी वे आवेंगे,
               कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,
               रोते प्राण उन्हें पावेंगे,
               पर क्या गाते-गाते?
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
- मैथिलीशरण गुप्त
Ref: Swantah Sukhaaya
Pub: National Publishing House, 23 Dariyagunj, New Delhi - 110002
विषय:
गौतम बुद्ध (2)

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 माँ कह एक कहानी
 सखि, वे मुझसे कहकर जाते (यशोधरा)
इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा


कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।

हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।

जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
..

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'तुम तो पहले ऐसे ना थे'
सत्या मिश्रा


तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

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