अप्रतिम कविताएँ
कुहुकनि
हृदय के तारों को - त्रिविध समीर सा
चेतन आत्मा को - गात नवीन सा
अपरिचित शरीरों का - परिचय प्राचीन सा
प्राचीन सा - नवीन सा
तुम्हारी वीणा की - झंकार सा
स्वर हूँ मैं।
बूँद बूँद सी तुम झरती हो
मेरे अंतर के घट में
सदैव तृप्त - चिर अतृप्त।
लक्ष नेत्र हैं मेरे
लक्ष रूप हैं तेरे --
अत्र, तत्र, सर्वत्र
चेतन में - अचेतन में
सुप्त में - सजग में
निशा में - दिवस में
अर्क में - निशीथ में
अपने हृदय में - नेत्रों में
तुम्हें ही निरखता हूँ मैं।
क्या कुहुकनि हो तुम?
तुम्हारे मायाजाल में - नागपाश में
बंध रहा हूँ मैं...


बंध रहा हूँ मैं
तुम्हारे मायाजाल में - नागपाश में...
क्या कुहुकनि हो तुम?
तुम्हें ही निरखता हूँ मैं
अपने हृदय में - नेत्रों में
अर्क में - निशीथ में
निशा में - दिवस में
सुप्त में - सजग में
चेतन में - अचेतन में
अत्र, तत्र, सर्वत्र।
लक्ष रूप हैं तेरे
लक्ष नेत्र हैं मेरे...
सदैव तृप्त - चिर अतृप्त
मेरे अंतर के घट में
बूँद बूँद सी तुम झरती हो।
स्वर हूँ मैं,
तुम्हारी वीणा की - झंकार सा,
प्राचीन सा - नवीन सा
अपरिचित शरीरों का - परिचय प्राचीन सा
चेतन आत्मा को - गात नवीन सा
हृदय के तारों को - त्रिविध समीर सा।
- जोगेंद्र सिंह
लक्ष -- लाख; अर्क -- सूर्य; निशीथ -- रात

काव्यालय को प्राप्त: 18 May 2020. काव्यालय पर प्रकाशित: 11 Dec 2020

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ब्रज श्रीवास्तव


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तुम्हारे लिए, तुम्हारे पिता जैसे नहीं हैं,

एकांत की खोह में जब जाता हूँ
बिल्कुल, बिल्कुल करीब हो जाता हूँ
अपने ही
तब भी
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...


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