ज्ञात नहीं जानें किस द्वार से
कौन से प्रकार से,
मेरे गृहकक्ष में,
दुस्तर-तिमिरदुर्ग-दुर्गम-विपक्ष में-
उज्ज्वल प्रभामयी
एकाएक कोमल किरण एक आ गयी।
बीच से अँधेरे के हुए दो टूक :
विस्मय-विमुग्ध
मेरा मन
पा गया अनन्त धन।
रश्मि वह सूक्ष्माकार,
कज्जल के कूट में उसी प्रकार,
जौलों रही उज्ज्वल बनी रही;
ओठों पर हास रहा हँसता हुआ वही।
किन्तु उसी हास-सी,
वीचि के विलास-सी,
विद्युत-प्रवाहमयी
जैसी वह आयी बस वैसी ही चली गयी।
एक ही निमेष में
मेरे मरुदेश में
आ कर सुधा की धार अमृत पिला गयी,
और फिर देखते ही देखते बिला गयी।
कोई दिव्य देवी दयादीप लिये जाती थी;
मार्ग में सुवर्ण-रश्मि-राशि बरसाती थी।
उसमें से एक यह रश्मि आ पड़ी थी यहाँ,
किन्तु वह रहती भला कहाँ,
मेरा घर सूना था,
अगम अरण्य का नमूना था।
रोकता उसे मैं यहाँ हाय! किस मुख से,
बाँधता उसे मैं किस भाँति भव-दुख से?
आयी वह, है क्या यही बात कम :
एक ही निमेष वह मेरे एक जन्म-सम
मेरे मनोदोल पै अनन्त-काल झूलेगा;
सुकृति समान वह मुझ को न भूलेगा।