अप्रतिम कविताएँ

कविता उम्मीद से है
क़लम, लिखना चाहती है 'बच्चियां'
कविता खिलखिलाना चाहती है
मासूम चीखों का शोर
मचा देता है उथल पुथल
काँपने लगता है क़लम का तन बदन
कविता रोने लग जाती है ...

क़लम, लिखना चाहती है 'प्रकृति'
कविता आनंदमग्न होना चाहती है
जाने कहाँ से घुस आता है क़लम में
हॉर्न बजाती मोटर गाड़ियों का धुआं
दम घुटने लगता है क़लम का
कविता धराशायी हो जाती है ...

क़लम, लिखना चाहती है 'प्रेम'
कविता झूम झूम के नाचना चाहती है
हर अक्षर पर बदलने लगता है
स्याही का रंग
क़लम कुछ ओर ही लिखवाना चाहती है
कविता मौन हो जाती है ...

क़लम, लिखना चाहती है 'माता-पिता'
कविता शब्दों को दुलारना चाहती है
शब्द जुड़ते नहीं बिखरने लगते हैं
कागज पर पड़ जाती हैं
सैंकड़ों झुर्रियां
क़लम डगमगाने लगती है
कविता सहम जाती है ...

क़लम, लिखना चाहती है 'स्त्री'
कविता उड़ना चाहती है
क़लम के पैरों में पड़ जाती है जंजीर
काली स्याही बदल जाती है सफेद पाउडर में
कविता फड़फड़ा के रह जाती है ...

कविता उम्मीद से है
मगर पड़ी है अधूरी और उदास
कोई बताये उसे फूल ज़रूर खिलेगा
जब तक रहेगी आस।
- पारुल 'पंखुरी'
Parul 'Pankhuri'
Email : [email protected]

काव्यालय को प्राप्त: 19 Apr 2018. काव्यालय पर प्रकाशित: 26 Oct 2018

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इन दर्पणों में देखा तो
~ वाणी मुरारका

वर्षों पहले यहाँ कुछ लोग रहते थे। उन्होंने कुछ कृतियां रचीं, जिन्हें 'वेद' कहते हैं। वेद हमारी धरोहर हैं, पर उनके विषय में मैं ज्यादा कुछ नहीं जानती हूँ। जो जानती हूँ वह शून्य के बराबर है।

फिर एक व्यक्ति ने, अमृत खरे ने, मेरे सामने कुछ दर्पण खड़े कर दिए। उन दर्पणों में वेद की कृतियाँ एक अलग रूप में दिखती हैं, जिसे ग्रहण कर सकती हूँ, जो अपने में सरस और कोमल हैं। पर उससे भी महत्वपूर्ण, अमृत खरे ने जो दर्पण खड़े किए हैं उनमें मैं उन लोगों को देख सकती हूँ जो कोटि-कोटि वर्षों पहले यहाँ रहा करते थे। ये दर्पण वेद की ऋचाओं के काव्यानुवाद हैं, और इनका संकलन है 'श्रुतिछंदा'।

"श्रुतिछंदा" में मुझे दिखती है ...

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
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