अप्रतिम कविताएँ

कमरे में धूप
हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !

खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर खड़ा हो गया,
किताबें मुँह बाये देखती रहीं,
पानी से भरी सुराही फर्श पर टूट पड़ी,
मेज़ के हाथ से क़लम छूट पड़ी।

धूप उठी और बिना कुछ कहे
कमरे से बाहर चली गई।

शाम को लौटी तो देखा
एक कुहराम के बाद घर में ख़ामोशी थी।
अँगड़ाई लेकर पलँग पर पड़ गई,
पड़े-पड़े कुछ सोचती रही,
सोचते-सोचते न जाने कब सो गई,
आँख खुली तो देखा सुबह हो गई।
- कुंवर नारायण
काव्यपाठ: नूपुर अशोक
विषय:
सूरज धूप (8)
रोशनी (4)
कल्पना (4)

काव्यालय पर प्रकाशित: 13 Sep 2024

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इस महीने :
'युद्ध की विभीषिका'
गजेन्द्र सिंह


युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?

हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
बचपन की आँखें भयाक्रान्त, खण्डहर घर, धरती मैली है।
छाया नभ में काला पतझड़, खो गया कहाँ नीला मंजर?
झरनों का गाना था कल तक, पर आज मौत की रैली है।

किलकारी भरते ..

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ना अब तलवारें, ना ढाल की बात है,
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ड्रोन गगन में, सिग्नल ज़मीन पर,
साइबर कमांड है अब सबसे ऊपर।

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मस्तिष्क और मशीन का यह संगम है।
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भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।

नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...

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