अप्रतिम कविताएँ
कैसा परिवर्तन
प्रकृति मौन हो देख रही है
आज समय का परिवर्तन
मृत्यु खेलती है आंगन में
करती है भीषण नर्तन।

झंझावातों में मनुष्य का
साहस संबल टूट गया
भूल गया सब खेल अनोखे
भूल गया पूजा अर्चन।

कैद हुआ है घर में मानव
जीवन का क्रम भूल गया
स्वयं समय से पूछ रहा है
कैसा है यह परिवर्तन।

दौड़ रहा हर नर अब घर को
रोजी अपनी भूल गया
पुनः पुरानी माटी से ही
जोड़ रहा टूटे बंधन।

अन्नपूर्णा धरती माँ के
रोते चिल्लाते बच्चे
भूख से मारे मारे फिरते
कैसा है जीवन दर्शन।

जान हथेली पर ले देवता
श्वेत वस्त्र में आये हैं
शायद किसी औषधि से बच
जाए जीवन हो नूतन ।

करुणानिधि भी चुप बैठे हैं
क्यों करुणा में देर हुई
करुण पुकारें हिला न पाई
क्यों श्री जी का सिंहासन।
- आभा सक्सेना
विषय:
कॉरोना और लॉक डाउन (5)

काव्यालय को प्राप्त: 2 May 2020. काव्यालय पर प्रकाशित: 8 May 2020

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जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊँचाइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराऐं
..

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सुख शान्ति सम्मान दायिनी तोंद में दम है।

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बचपन से ही रहा तोंद से सुखमय नाता।
जिससे भी की बात, अदब आँखों में पाया
नाम न लें गुरु, यार, मैं पंडित 'जी' कहलाया।

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कितना भी हो बॉस शीर्ष, शुक्ला 'जी' कहता।
मान का यह
..

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