प्रकृति मौन हो देख रही है
आज समय का परिवर्तन
मृत्यु खेलती है आंगन में
करती है भीषण नर्तन।
झंझावातों में मनुष्य का
साहस संबल टूट गया
भूल गया सब खेल अनोखे
भूल गया पूजा अर्चन।
कैद हुआ है घर में मानव
जीवन का क्रम भूल गया
स्वयं समय से पूछ रहा है
कैसा है यह परिवर्तन।
दौड़ रहा हर नर अब घर को
रोजी अपनी भूल गया
पुनः पुरानी माटी से ही
जोड़ रहा टूटे बंधन।
अन्नपूर्णा धरती माँ के
रोते चिल्लाते बच्चे
भूख से मारे मारे फिरते
कैसा है जीवन दर्शन।
जान हथेली पर ले देवता
श्वेत वस्त्र में आये हैं
शायद किसी औषधि से बच
जाए जीवन हो नूतन ।
करुणानिधि भी चुप बैठे हैं
क्यों करुणा में देर हुई
करुण पुकारें हिला न पाई
क्यों श्री जी का सिंहासन।
काव्यालय को प्राप्त: 2 May 2020.
काव्यालय पर प्रकाशित: 8 May 2020