अप्रतिम कविताएँ
विवशता
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार
         पथ ही मुड़ गया था।

गति मिलि मैं चल पड़ा
         पथ पर कहीं रुकना मना था,
राह अनदेखी, अजाना देश
         संगी अनसुना था।
चाँद सूरज की तरह चलता
         न जाना रातदिन है,
किस तरह हम तुम गए मिल
         आज भी कहना कठिन है,
तन न आया माँगने अभिसार
         मन ही जुड़ गया था।

देख मेरे पंख चल, गतिमय
         लता भी लहलहाई
पत्र आँचल में छिपाए मुख
         कली भी मुस्कुराई।
एक क्षण को थम गए डैने
         समझ विश्राम का पल
पर प्रबल संघर्ष बनकर
         आ गई आँधी सदलबल।
डाल झूमी, पर न टूटी
         किंतु पंछी उड़ गया था।
- शिव मंगल सिंह 'सुमन'

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 आभार
 विवशता
इस महीने :
'तोड़ती पत्थर'
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'


वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर—
वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'एक अदद तारा मिल जाये'
सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी


एक अदद तारा मिल जाये
तो इस नीम अँधेरे में भी
तुमको लम्बा ख़त लिख डालूँ।

छोटे ख़त में आ न सकेंगी
पीड़ा की पर्वतमालाएँ
और छटपटाहट की नदियाँ।
पता नहीं क्या वक़्त हुआ है,
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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