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नफ़रत
देखो, तो अब भी कितनी चुस्त-दुरुस्त और पुरअसर है
हमारी सदी की नफ़रत,
किस आसानी से चूर-चूर कर देती है
बड़ी-से-बड़ी रुकावटों को!
किस फुर्ती से झपटकर
हमें दबोच लेती है!

यह दूसरे जज़्बों से कितनी अलग है --
एक साथ ही बूढ़ी भी और जवान भी।
यह खुद उन कारणों को जन्म देती है
जिनसे पैदा हुई थी।
अगर यह सोती भी है तो हमेशा के लिए नहीं,
निद्राहीन रातें भी इसे थकाती नहीं,
बल्कि और तर-ओ-ताज़ा कर जाती हैं।

यह मज़हब हो या वह जो भी इसे जगा दे।
यह देश हो या वह जो भी इसे उठा दे।
इंसाफ भी तभी तक अपनी राह चलता है
जब तक नफ़रत इसकी दिशा नहीं बदल देती।
आपने देखा है इसका चेहरा
-- कामोन्माद की विकृत मुद्राओं वाला चेहरा।

ओह! दूसरे जज़्बात इसके सामने
कितनी कमज़ोर और मिमियाते हुए नज़र आते हैं।
क्या भाई-चारे के नाम पर भी किसी ने
भीड़ जुटाई है?
क्या करुणा से भी कोई काम पूरा हुआ है?
क्या संदेह कभी किसी फ़साद की जड़ बन सका है?
यह ताक़त सिर्फ़ नफ़रत में है।
ओह! इसकी प्रतिभा!
इसकी लगन! इसकी मेहनत!

कौन भुला सकता है वे गीत
जो इसने रचे?
वे पृष्ठ जो सिर्फ़ इसकी वजह से
इतिहास में जुड़े!
वे लाशें जिनसे पटे पड़े हैं
हमारे शहर, चौराहे और मैदान!

मानना ही होगा,
यह सौंदर्य के नए-नए आविष्कार कर सकती है,
इसकी अपनी सौंदर्य दृष्टि है।
आकाश के बीच फूटते हुए बमों की लाली
किस सूर्योदय से कम है।
और फिर खंडहरों की भव्य करुणा
जिनके बीच किसी फूहड़ मज़ाक की तरह
खड़ा हुआ विजय-स्तंभ!

नफ़रत में समाहित हैं
जाने कितने विरोधाभास --
विस्फोट के धमाके के बाद मौत की ख़ामोशी,
बर्फ़ीले मैदानों पर छितराया लाल खून।

इसके बावजूद यह कभी दूर नहीं जाती
अपने मूल स्वर से
ख़ून से सने शिकार पर झुके जल्लाद से।
यह हमेशा नई चुनौतियों के लिए तैयार रहती है
भले ही कभी कुछ देर हो जाए
पर आती ज़रूर है।
लोग कहते हैं नफ़रत अंधी होती है।
अंधी! और नफ़रत!
इसके पास तो जनाब, बाज की नज़र है
निर्निमेष देखती हुई भविष्य के आर-पार
जो कोई देख सकता है
तो सिर्फ़ नफ़रत।
- विस्सावा शिंबोर्स्का
- अनुवाद : विजय अहलूवालिया

***
Wislawa Szymborska
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              de diyaa sansaar sone kaa sahaj
              jo milaa karataa baḌe hee bhaag se,
kaun tum madhumaas-see amaraaiyaa(n) mahakaa gayee ho!

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is vyathaa ke timir-van kee;
..

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