'केसव' चौंकति सी चितवै, छिति पाँ धरके तरकै तकि छाँहि।
बूझिये और कहै मुख और, सु और की और भई छिन माहिं॥
डीठी लगी किधौं बाई लगी, मन भूलि पर्यो कै कर्यो कछु काहीं।
घूँघट की, घट की, पट की, हरि आजु कछु सुधि राधिकै नाहीं॥
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केशवदास
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