भावुकता और पवित्रता

रवीन्द्रनाथ ठाकुर

भाव-रस के लिए हमारे हृदय में एक स्वाभाविक लोभ होता है। काव्य और शिल्पकला से, गल्प, गान और अभिनय से, भाव-रस का उपभोग करने का आयोजन हम करते रहते हैं।

प्राय: उपासना से भी हम भाव-तृप्ति चाहते हैं। कुछ क्षणों के लिए एक विशेष रस का आभोग करके हम यह सोचते हैं कि हमें कुछ लाभ हुआ। धीरे-धीरे इस भोग की आदत एक नशा बन जाती है। मनुष्य अन्यान्य रस-लाभ के लिए जिस तरह विविध प्रकार के आयोजन करता है, लोगों को नियुक्त करता है, रुपया खर्च करता है उसी तरह उपासना-रस के नशे के लिए भी वह तरह-तरह के आयोजन करता है। रसोद्रेक के लिए उचित लोगों का संग्रह करके उचित रूप से वक्तृताओं की व्यवस्था की जाती है। भगवत्प्रेम का रस नियमित रूप से मिलता रहे, इस विचार से तरह-तरह की दुकानें खोली जाती है।

इस तरह के भाव-रस-ग्रहण को वास्तविक प्राप्ति समझना मानवीय दुर्बलता का एक लक्षण है। संसार में नाना प्रकार से हमें इसका परिचय मिलता है। ऐसे बहुत से लोग हैं जो अति शीघ्र गद् गद् हो उठते हैं, जो प्रत्येक मनुष्य को गले लिपटाकर “भाई” कह उठते हैं। जिनकी दया सहज ही व्यक्त होती है और जिनके आँसू सहज ही बह निकलते हैं। ऐसे लोग इस तरह के भाव-अनुभव और प्रकाश को ही फल-प्राप्ति समझते हैं। इसलिए वे वहीं तक पहुँचकर रुक जाते हैं, आगे नहीं बढ़ते। ऐसे भाव-रस को मैं निरर्थक नहीं कहता। लेकिन जब हम इसे एकमात्र लक्ष्य समझते हैं तो वह केवल निरर्थक ही नहीं, अनिष्टकर बन जाता है। भाव को ही लक्ष्य समझने की भूल मनुष्य प्राय: कर बैठता है, क्योंकि उसमें एक तरह का नशा है।

आराधना-उपासना के बीच ईश्वर की प्राप्ति के दो अलग अलग मार्ग हैं।

वृक्ष दो तरह से खाद्य-संग्रह करता है। उसके पल्लव हवा और रोशनी से पुष्टि ग्रहण करते हैं और वृक्ष स्वयं अपनी जड़ों के द्वारा खाद्य आकर्षित करता है।

कभी वर्षा है, कभी धूप, कभी ठंडी हवा तो कभी वसन्त का मृदु समीर। चंचल पल्लव इन सबसे जो कुछ लेने योग्य है, ले लेते हैं; उसके बाद वे सूखकर झड़ जाते हैं और नये पत्ते निकलते हैं।

लेकिन जड़ में चांचल्य नहीं होता। वह सदा स्तब्ध, दृढ़ होकर गहराइयों में फैलती जाती है और अपने एकान्तिक प्रयास से खाद्य ग्रहण करती है।

जड़ और पल्लव – ये दोनों पक्ष हमारे भी हैं। और हमारा आध्यात्मिक खाद्य इन दोनों दिशाओं से ग्रहण किया जाना चाहिये।

इनमें से जड़ का पक्ष प्रधान है। यही है चरित्र-पक्ष, भाव-पक्ष नहीं। उपासना में भी जिसे हम चरित्र की दिशा में ग्रहण करते हैं वही हमारा प्रधान खाद्य होता है। वहाँ चांचल्य नहीं है, वैचित्र्य की खोज नहीं है। वहाँ हम शान्त होते हैं, स्तब्ध होते हैं, ईश्वर में प्रतिष्ठित होते हैं। इस तरह के ग्रहण का कार्य अगोचर होता है, गम्भीर होता है। वह अन्दर-ही-अन्दर शक्ति और प्राण का संचार करता है, लेकिन भाव की अभिव्यक्ति द्वारा अपने-आप को प्रकाशित नहीं करता। वह धारण करता है, पोषण करता है और गुप्त रहता है।

चरित्र जिस शक्ति से प्राण को विस्तृत करता है उसी को कहते हैं, निष्ठा। वह अश्रुपूर्ण भाव का आवेग नहीं है। वह विचलित नहीं होती, जहाँ प्रतिष्ठित है वहीं डटी रहती है, गहराइयों में नीचे उतरती जाती है। शुद्ध-चारिणी, स्नात, पवित्र सेविका की तरह वह सबसे नीचे, हाथ जोड़कर, भगवान के पाँव के पास खड़ी रहती है।

हृदय में कितने परिवर्तन होते हैं। जिस बात से आज उसे तृप्ति मिलती है उसी से कल वह वितृष्णा अनुभव करता है। उसमें ज्वारभाटे का खेल चलता है – कभी उल्लास, कभी अवसाद। वह वृक्ष की पत्तियों की तरह आज विकसित है तो कल जीर्ण। यह पल्लवित चंचल-हृदय नित्य नए भाव-संस्पर्श के लिए व्याकुलता से स्पन्दित है।

लेकिन जड़ों के साथ, चरित्र के साथ यदि उसका अविचलित, अविच्छिन योग न हो तो यही भाव-संस्पर्श उसके लिए आघात और विनाश का कारण बन जाता है। जिस पेड़ की जड़ काट दी जाती है, उसे सूर्य का प्रकाश जला देता है, वर्षा का जल सड़ा देता है।

हमारे चरित्र के भीतर जो निष्ठा है वह यदि यथेष्ट मात्रा से खाद्य-संग्रह करना बन्द कर दे तो भाव का योग हमें पुष्ट नहीं करता, बल्कि हम में विकृति उत्पन्न करता है। दुर्बल, क्षीण चित्त के लिए भाव का खाद्य कुपथ्य बन जाता है।

चरित्र की जड़ से जब हम पवित्रता लाभ करते हैं तभी भावुकता हमारा साथ देती है। भाव-रस को ढूँढने की आवश्यकता नहीं होती, संसार में भाव का विचित्र प्रवाह अलग-अलग दिशाओं से अपने-आप ही हमारे पास आ पहुँचता है। लेकिन पवित्रता, साधना की सामग्री है। उसकी बाहर से वर्षा नहीं होती, अन्दर से ही उसको खींचकर ग्रहण करना पड़ता है। यह पवित्रता ही हमारी मूल वस्तु है, भावुकता का सम्बन्ध केवल पल्लवों से है।

अपनी उपासना में हम सर्वदा गम्भीर, निस्तब्ध भाव से इसी पवित्रता को ग्रहण करने के लिए चेतना को उद्बोधित करेंगे। और अधिक कुछ नहीं, हम प्रतिदिन सवेरे उसी के सामने खड़े होंगे जो “शुद्धम् अपापविद्धम्” है, और उसका आशीर्वाद ग्रहण करेंगे। झुककर प्रणाम करते हुए कहेंगे, “तुम्हारी पद-धूलि से मेरा ललाट निर्मल हुआ। आज मेरी जीवन-यात्रा का पाथेय संचित हुआ। सवेरे तुम्हारे सामने खड़े होकर तुम्हे प्रणाम किया है। तुम्हारी चरण-धूलि सिर पर रखकर दिन-भर के कर्म में निर्मल, सतेज भाव से तुम्हारा परिचय ग्रहण करूँगा।”

निबन्ध-नवनीत। संकलन कर्ता: प्रवीण्चन्द्र जैन। 1965
काव्यालय पर प्रकाशित: 12 अप्रैल 2019


Topic:
Poet (6)
***
Donate
A peaceful house of the beauty and solace of Hindi poetry, free from the noise of advertisements... to keep Kaavyaalaya like this, please donate.

₹ 500
₹ 250
Another Amount
Rabindranath Tagore
's other poems on Kaavyaalaya

 Abhisaar
 Kyun Bhijoye Na
 Jan Gan Man
 Dhvanit Aahwaan
This Month :

'Chaand Ke Saath-Saath'
Chetan Kashyap


peD़on ke jhuramuT se
jhaa(n)kataa
chaa(n)d poonam kaa
bilDingon kee oT men
chalataa hai saath-saath
bhar raaste

pahu(n)chaa ke ghar
..

Read more here...
This Month :
'Sabse Taaqatvar'
Aashish Qureshi 'Mahid'


jab aap kuchh naheen kar sakate
to kar sakate hain vo
jo sabase taak़tavar hai

tooph़aan kaa dhaagaa
dariyaa kaa tinakaa
door pahaaD़ par jalataa diyaa

..

Read more here...
This Month :
'Haadse Ke Baad Kee Deepawali'
Geeta Dubey


raushanee se nahaae is shahar men
khushiyon kee laḌiyaa(n) jagamagaatee hain
cheer kar gamon ke a(n)dhere ko
jindagee aaj phir se muskaraatee hai.
dhamaakaa phir goonjataa hai
par bamon aur bandookon kaa naheen
paTaakhon ke saath saath
goonjatee hai kilakaariyaa(n) bhee.
sahame se murjhaae hoThon par
..

Read and listen here...
संग्रह से कोई भी कविता | काव्य विभाग: शिलाधार युगवाणी नव-कुसुम काव्य-सेतु | प्रतिध्वनि | काव्य लेखहमारा परिचय | सम्पर्क करें

a  MANASKRITI  website