अप्रतिम कविताएँ
धीरे धीरे शाम चली आई
धीरे धीरे शाम चली आई
भीनी भीनी खुशबू छाई

इन्द्रधनुषी रँग मेरे मन का
मैं उसकी परछाई, छाई
धीरे धीरे शाम चली आई॥

बूँद पडे बारिश की, सौंधी
महक मिट्टी की भाई, भाई
धीरे धीरे शाम चली आई॥

भीगी मेरे तन की चादर
प्यास न पर बुझ पाई, पाई
धीरे धीरे शाम चली आई॥

कल जो बीज थे मैने बोए
हरियाली अब छाई, छाई
धीरे धीरे शाम चली आई॥

आँगन में कुछ फूल खिले हैं
रँगत मन को भाई, भाई
धीरे धीरे शाम चली आई॥

सुर से सुर मिल राग बना यह
मालकौंस रस बरसाई
धीरे धीरे शाम चली आई॥

सातरँगों की सरगम, कारी
कोयल ने है गाई, गाई
धीरे धीरे शाम चली आई॥

महकाए मन मेरा देवी
भोर न ऐसी आई, आई
धीरे धीरे शाम चली आई॥
- देवी नागरानी
विषय:
शाम (11)
वर्षा (4)

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इस महीने :
'दरवाजे में बचा वन'
गजेन्द्र सिंह


भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।

नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...

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पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'पेड़ों का अंतर्मन'
हेमंत देवलेकर


कल मानसून की पहली बरसात हुई
और आज यह दरवाज़ा
ख़ुशी से फूल गया है

खिड़की दरवाज़े महज़ लकड़ी नहीं
विस्थापित जंगल होते हैं

मुझे लगा, मैं पेड़ों के बीच से आता-जाता हूँ
टहनियों पर ...
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पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'छाता '
प्रेमरंजन अनिमेष


जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता

इस शहर के लोगों के पास
जो छाता है
उसमें

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