अप्रतिम कविताएँ
भ्रम
दिन भर एक कोलाहल के साध
उस हँसी के ठहाकों के बीच
जिन्दा रहने की वो जुजुत्सा
सामान्य दिखने का वो सफल प्रयास
दम तोड़ देता है
रात की आहट पर
जब घेरता है
वही कुहाँसा घनघोर अन्धेरा
और गिर पड़ती है
पानी की दो बूँदें
मेरे ही गालों पर
हमेशा की तरह ...
- अरिफ खान
Arif Khan
email: [email protected]
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 नियति
 भ्रम
इस महीने :
'काल का वार्षिक विलास'
नाथूराम शर्मा 'शंकर'


सविता के सब ओर मही माता चकराती है,
घूम-घूम दिन, रात, महीना वर्ष मनाती है,
कल्प लों अन्त न आता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

छोड़ छदन प्राचीन, नये दल वृक्षों ने धारे,
देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन
..

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इस महीने :
'ओ माँ बयार'
शान्ति मेहरोत्रा


सूरज को, कच्ची नींद से
जगाओ मत।
दूध-मुँहे बालक-सा
दिन भर झुंझलायेगा
मचलेगा, अलसायेगा
रो कर, चिल्ला कर,
घर सिर पर उठायेगा।
आदत बुरी है यह
..

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इस महीने :
'आए दिन अलावों के'
इन्दिरा किसलय


आए दिन
जलते हुए, अलावों के !!

सलोनी सांझ
मखमली अंधेरा
थमा हुआ शोर
हर ओर
जी उठे दृश्य
मनोरम गांवों के !!

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