अप्रतिम कविताएँ
आज नदी बिलकुल उदास थी

आज नदी बिलकुल उदास थी।
सोयी थी अपने पानी में,
उसके दर्पण पर -
बादल का वस्त्र पड़ा था।
मैंने उसे नहीं जगाया,
दबे पाँव घर वापस आया।
- केदारनाथ अग्रवाल
काव्यपाठ: वाणी मुरारका
विषय:
प्रकृति (38)
नदी (3)
उदासी (19)

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जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता

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जो छाता है
उसमें

..

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कभी-कभी लगता है
जैसे घर की पक्की छत, दीवारें, चौखटें
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केवल ये खिड़कियाँ-दरवाजे जैसे
कभी ..

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..

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