अप्रतिम कविताएँ
तुम तो पहले ऐसे ना थे
तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
स्वांग रचाओगे
धड़कने बढ़ाकर
फिर पास आओगे...

हम कौतूहल से देखें
तो मंद मुस्काओगे
कानो में फूँककर
फिर कोई मन्त्रमुग्ध माया
हौले से अपना दामन छुड़ाओगे...

तुम तो पहले ऐसे न थे
कि नींद हो स्वप्न हो या हो जागरण
चेतन अवचेतन या कोई तन्द्रिल मन
इंतज़ार हमारा न समझ पाओगे...

सुनो रतजगों में मिलो
या मिलो भोरे भोर
दिन दोपहरिया चौक चौराहा
या कोई पिछली मोड़ ...

रचा लो चाहे कोई भी स्वांग
हो जाओ चाहे अन्तर्ध्यान
ध्यान में भी तुमको पहचान लेंगे
मेरी जान तुमको जान ही लेंगे

तो क्या हुआ कि तुम पहले से नहीं
जरा से पुराने जरा नये ही सही
लुकाछिपी तुमसे खेल लेंगे
कभी विरह कभी मिलन लिखेंगे....

ना चाहो अगर तुम
तुम्हें कविता न कहेंगे
कहानी कहेंगे कहानी लिखेंगे...

कविता कहना थोड़ी छोड़ देंगे
तुमसे मिलना थोड़ी छोड़ देंगे...
- सत्या मिश्रा
विषय:
सृजन (10)

काव्यालय को प्राप्त: 28 May 2025. काव्यालय पर प्रकाशित: 12 Sep 2025

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इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा


कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।

हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।

जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
..

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इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

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