अप्रतिम कविताएँ
लाचारी
न जाने क्या लाचारी है
आज मन भारी-भारी है

           हृदय से कहता हूँ कुछ गा
           प्राण की पीड़ित बीन बजा
           प्यास की बात न मुँह पर ला

यहाँ तो सागर खारी है
न जाने क्या लाचारी है
आज मन भारी-भारी है

           सुरभि के स्वामी फूलों पर
           चढ़ये मैंने जब कुछ स्वर
           लगे वे कहने मुरझाकर

ज़िन्दगी एक खुमारी है
न जाने क्या लाचारी है
आज मन भारी-भारी है

           नहीं है सुधि मुझको तन की
           व्यर्थ है मुझको चुम्बन भी
           अजब हालत है जीवन की

मुझे बेहोशी प्यारी है
न जाने क्या लाचारी है
आज मन भारी-भारी है
- रमानाथ अवस्थी
Poet's Address: 14/11, C-4 C Janakpuri, New Delhi
Ref: Naye Purane, 1998

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 रचना और तुम
 लाचारी
 हम-तुम
इस महीने :
'दिव्य'
गेटे


अनुवाद ~ प्रियदर्शन

नेक बने मनुष्य
उदार और भला;
क्योंकि यही एक चीज़ है
जो उसे अलग करती है
उन सभी जीवित प्राणियों से
जिन्हें हम जानते हैं।

स्वागत है अपनी...
अपनी
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
होलोकॉस्ट में एक कविता
~ प्रियदर्शन

लेकिन इस कंकाल सी लड़की के भीतर एक कविता बची हुई थी-- मनुष्य के विवेक पर आस्था रखने वाली एक कविता। वह देख रही थी कि अमेरिकी सैनिक वहाँ पहुँच रहे हैं। इनमें सबसे आगे कर्ट क्लाइन था। उसने उससे पूछा कि वह जर्मन या अंग्रेजी कुछ बोल सकती है? गर्डा बताती है कि वह 'ज्यू' है। कर्ट क्लाइन बताता है कि वह भी 'ज्यू' है। लेकिन उसे सबसे ज़्यादा यह बात हैरानी में डालती है कि इसके बाद गर्डा जर्मन कवि गेटे (Goethe) की कविता 'डिवाइन' की एक पंक्ति बोलती है...

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राष्ट्र वसन्त
रामदयाल पाण्डेय

पिकी पुकारती रही, पुकारते धरा-गगन;
मगर कहीं रुके नहीं वसन्त के चपल चरण।

असंख्य काँपते नयन लिये विपिन हुआ विकल;
असंख्य बाहु हैं विकल, कि प्राण हैं रहे मचल;
असंख्य कंठ खोलकर 'कुहू कुहू' पुकारती;
वियोगिनी वसन्त की...

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