अप्रतिम कविताएँ
एक अदद तारा मिल जाये
एक अदद तारा मिल जाये
तो इस नीम अँधेरे में भी
तुमको लम्बा ख़त लिख डालूँ।

छोटे ख़त में आ न सकेंगी
पीड़ा की पर्वतमालाएँ
और छटपटाहट की नदियाँ।
पता नहीं क्या वक़्त हुआ है,
सिर्फ़ भाप है कलाइयों पर,
बारिश में भीगीं यूँ घड़ियाँ।

एक अदद माचिस मिल जाये
तो मैं बुझी काँगड़ी से भी
कुछ नीले अंगार उठा लूँ।

लिख डालूँ तड़के दरवाज़े,
बंद ड्योढ़ियाँ, घुप बरामदे,
लहूलुहान हुई तहज़ीबें।
लिख दूँ सतही तहक़ीक़ातें,
चतुर दिलासे, झूठे ढाढस,
उलझाने वाली तरक़ीबें।

एक अदद पारस मिल जाये
तो इन लौह पलों को भी मैं
कंचन की आभा में ढालूँ।

मत पूछो यह दुनिया क्या है
कोई साही खड़ी हुई हो
ज्यों अपने काँटे फैलाये।
है हर रंज ताड़ से ऊँचा,
हर तकलीफ़ कुएँ से गहरी,
कोई कैसे स्वप्न बचाये?

एक अदद माँदल मिल जाये
तो मैं शूलों के सम्मुख भी
फूलों की पीड़ाएँ गा लूँ।

महज़ कमीज़ों से क्या होगा,
हम मनुष्यता भी तो पहनें,
धारण करें बड़प्पन भी तो।
मन-मयूर नाचेगा हर पल
और पपीहा भी हुलसेगा,
आसमान में हों घन भी तो।

एक अदद मधुऋतु मिल जाये
तो बेरंग अहातों में भी
सतरंगी तितलियाँ बुला लूँ।

आकर निंदियायी टहनी पर
हुदहुद का चुपचाप बैठना
ठकठक की शुरुआत तो नहीं।
नीरस-सी मुस्कानों वाले
ये निढाल-से चेहरे हैं जो,
पतझर वाले पात तो नहीं?

एक अदद आँधी मिल जाये
तो मैं उड़े चँदोवों में भी
उत्सव के उद्गार सजा लूँ।
- सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी
नीम = आधा; साही = porcupine; माँदल = ढोलक; हुदहुद = एक पक्षी

काव्यालय को प्राप्त: 20 Sep 2023. काव्यालय पर प्रकाशित: 19 Apr 2024

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सविता के सब ओर मही माता चकराती है,
घूम-घूम दिन, रात, महीना वर्ष मनाती है,
कल्प लों अन्त न आता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

छोड़ छदन प्राचीन, नये दल वृक्षों ने धारे,
देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन
..

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..

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