अप्रतिम कविताएँ पाने
वह चिढ़ाता कोना
चेहरे पर फैल आए बालों को,
अपनी अलसाई उंगलियो से हटाया था,
कुछ समय खुद मे ही खोने के बाद
जब तुम्हारी तरफ़ देखा तो,
तुम अभी भी सो रहे थे,
तुम्हे छुने की कोशिश मे,
मैने हाथ भी बढ़ाया था,
पर तुम तब भी सो रहे थे,
कुछ खाली सा लगा मुझे मुझमें
टटोलने का मन भी हुआ
शायद कोई कोना कहीं बंद पड़ा हो
और मेरे ढूँढने पर मिल जाए वो
पर कहीं कुछ अभी भी सूना था
एक झुंझलाहट सी हुई खुद पर
वेहम है शायद मेरा
कह कर खुद को झिड़क दिया मैने
मगर वह खाली कोना अभी भी चिढ़ा रहा था
हिम्मत बटोर कर मैं उस कोने से ही पूछा,
क्या चाहिए तुझे?
अब और क्या बाकी है?
उसने तनिक दबी हँसी से कहा,
ये मूरख किसे बनाती हो?
जिसे छुकर उसके होने का यकीन खुद को दिलाती हो,
क्या सच मे उसे ही पाना चाहती हो?
लगा की चोरी पकड़ ली गयी हो मेरी,
हर स्पर्श में मैंने जो महसूस किया
क्या सिर्फ़ तुम्हारी आकुलता नही थी?
एक ज़रूरत,
उसके आगे सब शून्य था
और यही शून्य अब उस कोने मे जा बैठा था
- जागृति जायसवाल
Jagriti Jaiswal
Email : [email protected]
Jagriti Jaiswal
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इस महीने :
'साँझ फागुन की'
रामानुज त्रिपाठी


फिर कहीं मधुमास की पदचाप सुन,
डाल मेंहदी की लजीली हो गई।

दूर तक अमराइयों, वनवीथियों में
लगी संदल हवा चुपके पाँव रखने,
रात-दिन फिर कान आहट पर लगाए
लगा महुआ गंध की बोली परखने

दिवस मादक होश खोए लग रहे,
साँझ फागुन की नशीली हो गई।

हँसी शाखों पर कुँवारी मंजरी
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इस महीने :
'यूँ छेड़ कर धुन'
कमलेश पाण्डे 'शज़र'


यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं विवश सा गुनगुनाता रहा
सारी रात
उस छूटे हुए टूटे हुए सुर को
सुनहरी पंक्तियों के वस्त्र पहनाता रहा
गाता रहा

यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं मानस की दीवारों पर

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