अप्रतिम कविताएँ
कहीं कुछ भी उथला न रह जाए
इन दिनों मैं डूब-उतरा रही हूँ
अपने ही भीतर के पानी में
ऐसे जैसे एक प्याला हो मेरी देह और
चाय पत्ती के सैशे-सा मेरा व्यक्तित्व
डूब और उतरा रहा है अपने ही भीतर कहीं

न जाने क्यूँ जितनी बार उबरती हूँ खुद से
फिर-फिर डूब जाना चाहती हूँ खुद में ही
कि सदियाँ गवाह हैं इस सत्य की
जो जितना डूबा खुद में
उतना ही उबरा है औरों के लिए

मेरा मुझमें ही डूब जाना उदास करता है मुझे
और मैं धँसती ही चली जाती हूँ ऐसे
जैसे कोई भारी पत्थर बँधा हो पाँवों में जो
खींचता जाता है मुझे भीतर और भीतर
उबरने के लिए हाथ-पैर मारती है मेरी जिजीविषा
लेकिन कुछ है जो लिये जा रहा है मुझे अतल गहराइयों में

उदासियों के समन्दर लपेटे मैं पा लेना चाहती हूँ खुद को
भीगती रहती हूँ किसी आख़िरी कण तक
और और उदास होती हूँ
समन्दर के गहरे तल से फुदककर कुछ बूँदें
ठहर जाती हैं मेरी आँखों की कोरों पर
और मैं आँखें मींच लौटा देती हूँ उन्हें
अपने ही भीतर के समन्दर को

अभी और डूबना है और जाना है उस तल तक
कहते हैं कि जहाँ के बाद
हार मान लेता है गहरा नीला भयावह समन्दर भी
मुझे अपने भीतर की गहराइयों से लौटते रहना है बार-बार
ताकि मुझमें कहीं कुछ भी उथला न रह जाए।
- ज्योति चावला
उथला : छिछला, सतही | उतराना : तैरना
विषय:
अन्तर्मन (13)

काव्यालय को प्राप्त: 19 Sep 2023. काव्यालय पर प्रकाशित: 17 May 2024

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जिससे भी की बात, अदब आँखों में पाया
नाम न लें गुरु, यार, मैं पंडित 'जी' कहलाया।

आज भी ऑफिस तक में तोंद से मान है मिलता
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मान का यह
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