अप्रतिम कविताएँ
कहीं कुछ भी उथला न रह जाए
इन दिनों मैं डूब-उतरा रही हूँ
अपने ही भीतर के पानी में
ऐसे जैसे एक प्याला हो मेरी देह और
चाय पत्ती के सैशे-सा मेरा व्यक्तित्व
डूब और उतरा रहा है अपने ही भीतर कहीं

न जाने क्यूँ जितनी बार उबरती हूँ खुद से
फिर-फिर डूब जाना चाहती हूँ खुद में ही
कि सदियाँ गवाह हैं इस सत्य की
जो जितना डूबा खुद में
उतना ही उबरा है औरों के लिए

मेरा मुझमें ही डूब जाना उदास करता है मुझे
और मैं धँसती ही चली जाती हूँ ऐसे
जैसे कोई भारी पत्थर बँधा हो पाँवों में जो
खींचता जाता है मुझे भीतर और भीतर
उबरने के लिए हाथ-पैर मारती है मेरी जिजीविषा
लेकिन कुछ है जो लिये जा रहा है मुझे अतल गहराइयों में

उदासियों के समन्दर लपेटे मैं पा लेना चाहती हूँ खुद को
भीगती रहती हूँ किसी आख़िरी कण तक
और और उदास होती हूँ
समन्दर के गहरे तल से फुदककर कुछ बूँदें
ठहर जाती हैं मेरी आँखों की कोरों पर
और मैं आँखें मींच लौटा देती हूँ उन्हें
अपने ही भीतर के समन्दर को

अभी और डूबना है और जाना है उस तल तक
कहते हैं कि जहाँ के बाद
हार मान लेता है गहरा नीला भयावह समन्दर भी
मुझे अपने भीतर की गहराइयों से लौटते रहना है बार-बार
ताकि मुझमें कहीं कुछ भी उथला न रह जाए।
- ज्योति चावला
उथला : छिछला, सतही | उतराना : तैरना

काव्यालय को प्राप्त: 19 Sep 2023. काव्यालय पर प्रकाशित: 17 May 2024

***
सहयोग दें
विज्ञापनों के विकर्षण से मुक्त, काव्य के सुकून का शान्तिदायक घर... काव्यालय ऐसा बना रहे, इसके लिए सहयोग दे।

₹ 500
₹ 250
अन्य राशि
इस महीने :
'तोंद'
प्रदीप शुक्ला


कहते हैं सब लोग तोंद एक रोग बड़ा है
तोंद घटाएँ सभी चलन यह खूब चला है।
पर मानो यदि बात तोंद क्यों करनी कम है
सुख शान्ति सम्मान दायिनी तोंद में दम है।

औरों की क्या कहूं, मैं अपनी बात बताता
बचपन से ही रहा तोंद से सुखमय नाता।
जिससे भी की बात, अदब आँखों में पाया
नाम न लें गुरु, यार, मैं पंडित 'जी' कहलाया।

आज भी ऑफिस तक में तोंद से मान है मिलता
कितना भी हो बॉस शीर्ष, शुक्ला 'जी' कहता।
मान का यह
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...

छंद में लिखना - आसान तरकीब
भाग 6 लय में लय तोड़ना

वाणी मुरारका

छंद में लिखना - आसान तरकीब
भाग 5 गीतों की ओर

वाणी मुरारका
इस महीने :
'सीमा में संभावनाएँ'
चिराग जैन


आदेशों का दास नहीं है शाखा का आकार कभी,
गमले तक सीमित मत करना पौधे का संसार कभी।

जड़ के पाँव नहीं पसरे तो छाँव कहाँ से पाओगे?
जिस पर पंछी घर कर लें वो ठाँव कहाँ से लाओगे?
बालकनी में बंध पाया क्या, बरगद का ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
संग्रह से कोई भी रचना | काव्य विभाग: शिलाधार युगवाणी नव-कुसुम काव्य-सेतु | प्रतिध्वनि | काव्य लेख
सम्पर्क करें | हमारा परिचय
सहयोग दें

a  MANASKRITI  website