अप्रतिम कविताएँ
तुम नहीं हो?
है धुंधलका
हल्का हल्का
ठहरा ठहरा
पाँव पल का
मन हिंडोला डोलता है
मूक अश्रु पूछता है
तुम नहीं हो?

चासनी से
छन रहे हो
चाँदनी से
झर रहे हो
छुप रहे हो
छल रहे हो
बस तुम्ही-तुम
हर कहीं हो
तुम नहीं हो?

हो जो भीतर
क्यूँ न बाहर
बीच क्यूँ है
काली चादर
आस बे-पर
साँस बे-घर
शेष फिर भी
ढाई आखर
सब ग़लत बस
तुम सही हो
तुम नहीं हो?

जानते हो
जान-से हो
क्यूँ बने
अनजान से हो
दूरियों में
जल रहे हो
मुझमें पल-पल
ढल रहे हो
सोचते हो
के नहीं हो
पर यहीं हो

तुम यहीं हो
तुम यहीं हो
तुम यहीं हो!
- अंजु वर्मा
email: [email protected]
विषय:
प्रेम (60)
अध्यात्म दर्शन (34)

काव्यालय को प्राप्त: 7 May 2019. काव्यालय पर प्रकाशित: 6 Sep 2019

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इस महीने :
'स्वतंत्रता का दीपक'
गोपालसिंह नेपाली


घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।

शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्वतंत्रता-दिया,
रुक रही न नाव हो, ज़ोर का बहाव हो,
आज गंगधार पर यह दिया बुझे नहीं!
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है!
..

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इस महीने :
'युद्ध की विभीषिका'
गजेन्द्र सिंह


युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?

हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
बचपन की आँखें भयाक्रान्त, खण्डहर घर, धरती मैली है।
छाया नभ में काला पतझड़, खो गया कहाँ नीला मंजर?
झरनों का गाना था कल तक, पर आज मौत की रैली है।

किलकारी भरते ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'नव ऊर्जा राग'
भावना सक्सैना


ना अब तलवारें, ना ढाल की बात है,
युद्ध स्मार्ट है, तकनीक की सौगात है।
ड्रोन गगन में, सिग्नल ज़मीन पर,
साइबर कमांड है अब सबसे ऊपर।

सुनो जवानों! ये डिजिटल रण है,
मस्तिष्क और मशीन का यह संगम है।
कोड हथियार है और डेटा ... ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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