अप्रतिम कविताएँ
तस्वीर की लडकी बोलती है
जिस रात
अँधेरा गहराता है
चाँदनी पिघलती है
मैं हौले कदमों से
कैनवस की कैद से
बाहर निकलती हूँ

बालों को झटक कर खोलती हूँ
और उन घनेरी ज़ुल्फों में
टाँकती हूँ जगमगाते सितारे

मेरे बदन से फूटती है खुश्बू
हज़ारों चँपई फूल खिलते हैं
आँखों के कोरों से कोई
सहेजा हुआ सपना
टपक जाता है

मदहोश हवा में
अनजानी धुन पर
अनजानी लय से
पैर थिरक जाते हैं
रात भर मैं झूमती हूँ।

पौ फटते ही
बालों को समेटती हूँ
जूड़े में...
बदन की खुशबू को ढंकती हूँ
चादर से,
पलकों को झपकाती हूँ
और कोई अधूरा सपना
फिर कैद हो जाता है
आँखों में।
एक कदम आगे बढ़ाती हूँ
और कैनवस की तस्वीर वाली
लड़की बन जाती हूँ।

तुम आते हो
तस्वीर के आगे ठिठकते हो
दो पल,
फिर दूसरी तस्वीर की ओर
बढ़ जाते हो...

मेरे होंठ बेबस, कैद हैं
कैनवस में
बोलना चाहती हूँ... पर...

क्या तुम नहीं देख पाते
तस्वीर की लड़की के
होंठों की ज़रा सी टेढ़ी
मुस्कुराहट
और नीचे सफेद फर्श पर
गिरे दो चँपई फूल ?
- प्रत्यक्षा
Pratyaksha
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विषय:
सृजन (10)
कल्पना (4)

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इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा


कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।

हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।

जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'तुम तो पहले ऐसे ना थे'
सत्या मिश्रा


तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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