अप्रतिम कविताएँ
स्वीकार करो
अर्पित मेरी भावना-- इसे स्वीकार करो ।

तुमने गति का संघर्ष दिया मेरे मन को,
सपनों को छवि के इन्द्रजाल का सम्मोहन;
तुमने आँसू की सृष्टि रची है आँखों में
अधरों को दी है शुभ्र मधुरिमा की पुलकन।

उल्लास और उच्छ्वास तुम्हारे ही अवयव
तुमने मरीचिका और तृषा का सृजन किया,
अभिशाप बनाकर तुमने मेरी सत्ता को
मुझको पग-पग पर मिटने का वरदान दिया,

मैं हँसा, तुम्हारे हँसते-से संकेतों पर
मैं फूट पड़ा, लख बंक भृकुटि का संचालन
अपनी लीलाओं से हे विस्मित और चकित,
अर्पित मेरी भावना-- इसे स्वीकार करो।

अर्पित है मेरा कर्म-- इसे स्वीकार करो |

क्या पाप और क्या पुण्य इसे तो तुम जानो,
करना पड़ता है केवल इतना ज्ञात यहाँ;
आकाश तुम्हारा और तुम्हारी ही पृथ्वी,
तुममें ही तो इन साँसों का आघात यहाँ;

तुममे निर्बलता और शक्ति इन हाथों की
मैं चला कि चरणों का गुण केवल चलना है
ये दृश्य रचे, दी वहीं दृष्टि तुमने मुझको
मैं क्या जानूँ क्‍या सत्य और क्‍या छलना है।

रच-रचकर करना नष्ट तुम्हारा ही गुण है,
तुममें ही तो है कुंठा इन सीमाओं की,
है निज असफलता और सफलता से प्रेरित
अर्पित है मेरा कर्म-- इसे स्वीकार करो।

अर्पित मेरा अस्तित्व-- इसे स्वीकार करो।

रंगों की सुषमा रच, मघु ऋतु जल जाती है,
सौरभ बिखराकर फूल धूल बन जाता है,
धरती की प्यास बुझा जाता गलकर बादल,
पाषाणों से टकराकर निर्झर गाता है,

तुमने ही तो पागलपन का संगीत दिया,
करुणा बन गलना तुमने मुझको सिखलाया
तुमने ही मुझको यहाँ धूल से ममता दी
रंगों में जलना मैंने तुमसे ही पाया।

उस ज्ञान और भ्रम में ही तो तुम चेतन हो
जिनसे मैं बरबस उठता-गिरता रहता हूँ
निज खंड-खंड में हे असीम तुम हे अखंड !
अर्पित मेरा अस्तित्व-- इसे स्वीकार करो।
- भगवती चरण वर्मा

काव्यालय पर प्रकाशित: 23 Oct 2020

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हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !

खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर
..

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