अप्रतिम कविताएँ
साँझ फागुन की
फिर कहीं मधुमास की पदचाप सुन,
डाल मेंहदी की लजीली हो गई।

       दूर तक अमराइयों, वनवीथियों में
       लगी संदल हवा चुपके पाँव रखने,
       रात-दिन फिर कान आहट पर लगाए
       लगा महुआ गंध की बोली परखने

दिवस मादक होश खोए लग रहे,
साँझ फागुन की नशीली हो गई।

       हँसी शाखों पर कुँवारी मंजरी
       फिर कहीं टेसू के सुलगे अंग-अंग,
       लौट कर परदेश से चुपचाप फिर,
       बस गया कुसुमी लताओं पर अनंग

चुप खड़ी सरसों की गोरी सी हथेली
डूब कर हल्दी में पीली हो गई।

       फिर उड़ा रह-रह के आँगन में अबीर
       फिर झड़े दहलीज पर मादक गुलाल,
       छोड़ चन्दन-वन चली सपनों के गांव
       गंध कुंकुम के गले में बाँह डाल

और होने के लिए रंगों से लथपथ
रेशमी चूनर हठीली हो गई।
- रामानुज त्रिपाठी

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'पावस गीत'
प्रभात कुमार त्यागी


पुल बारिश का!
बिना ओढ़नी हवा घूमती
सबने देखा
पुल बारिश का!

मेघों से धरती तक
धानखेती सीढ़ियाँ,
मिट्टी में उग रहीं
नई हरी पीढ़ियाँ,
उड़ती हुई नदी पर
बनती मिटती नौका,
पुल बारिश का!
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...

डूब कर देखो ये है गंगा गणित विज्ञान की।
ये परम आनंद है वाणी स्वयं भगवान की।

~ विनोद तिवारी

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