अप्रतिम कविताएँ
साँझ फागुन की
फिर कहीं मधुमास की पदचाप सुन,
डाल मेंहदी की लजीली हो गई।

       दूर तक अमराइयों, वनवीथियों में
       लगी संदल हवा चुपके पाँव रखने,
       रात-दिन फिर कान आहट पर लगाए
       लगा महुआ गंध की बोली परखने

दिवस मादक होश खोए लग रहे,
साँझ फागुन की नशीली हो गई।

       हँसी शाखों पर कुँवारी मंजरी
       फिर कहीं टेसू के सुलगे अंग-अंग,
       लौट कर परदेश से चुपचाप फिर,
       बस गया कुसुमी लताओं पर अनंग

चुप खड़ी सरसों की गोरी सी हथेली
डूब कर हल्दी में पीली हो गई।

       फिर उड़ा रह-रह के आँगन में अबीर
       फिर झड़े दहलीज पर मादक गुलाल,
       छोड़ चन्दन-वन चली सपनों के गांव
       गंध कुंकुम के गले में बाँह डाल

और होने के लिए रंगों से लथपथ
रेशमी चूनर हठीली हो गई।
- रामानुज त्रिपाठी
विषय:
होली (7)
प्रकृति (41)
वसन्त (5)

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जब आप कुछ नहीं कर सकते
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जो सबसे ताक़तवर है

तूफ़ान का धागा
दरिया का तिनका
दूर पहाड़ पर जलता दिया

..

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'हादसे के बाद की दीपावली'
गीता दूबे


रौशनी से नहाए इस शहर में
खुशियों की लड़ियाँ जगमगाती हैं
चीर कर गमों के अँधेरे को
जिंदगी आज फिर से मुस्कराती है।

धमाका फिर गूंजता है
पर बमों और बंदूकों का नहीं
पटाखों के साथ-साथ
गूंजती है किलकारियाँ भी।
सहमे से मुरझाए होठों पर
..

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