अप्रतिम कविताएँ
समर्पण
तर्जनी
एक अहंकारी उँगली
जब उठती है
तो लगाती है लांछन
या फैलाती है दहशत
पर जब झुक कर
हो जाती है समर्पित
अँगूठे पर
तो बन जाती है मूरत
ज्ञान की, सम्मान की।

मध्यमा
एक सांसारिक उँगली
जब उठती है
तो उड़ाती है उपहास या
दर्शाती है परिहास
पर जब झुक कर
हो जाती है समर्पित
अँगूठे पर
तो बन जाती है मूरत
ध्यान की, वरदान की।

अनामिका
एक अनुरागी उँगली
जब उठती है तो
झुकती हैं पलकें प्रेयसी की
और बनती सेतु दो सत्वो का
पर जब झुक कर होती है
समर्पित अँगूठे पर
तो बन जाती है मूरत
उत्थान की, निर्वाण की।

कनिष्ठा
एक छोटी सी उँगली
जिसके उठने से या
न उठने से
नहीं फ़र्क़ पड़ता
हवन में या अनुष्ठान में
पर जब झुक कर होती है
समर्पित अँगूठे पर
तो बन जाती है मूरत
संज्ञान लिए विद्वान की।

आदमी
मुकुट धारी या भिखारी
भयभीत या दमनकारी
जब भी झुक कर
होता है समर्पित
प्रभु के चरणों में
तो बन जाता है मूरत
इंसान की या भगवान की।
- अजेय रतन
विषय:
अध्यात्म दर्शन (36)

काव्यालय को प्राप्त: 1 Mar 2021. काव्यालय पर प्रकाशित: 12 Mar 2021

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अन्य राशि
इस महीने :
'हादसे के बाद की दीपावली'
गीता दूबे


रौशनी से नहाए इस शहर में
खुशियों की लड़ियाँ जगमगाती हैं
चीर कर गमों के अँधेरे को
जिंदगी आज फिर से मुस्कराती है।

धमाका फिर गूंजता है
पर बमों और बंदूकों का नहीं
पटाखों के साथ-साथ
गूंजती है किलकारियाँ भी।
सहमे से मुरझाए होठों पर
..

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इस महीने :
'तुम्हारे साथ रहकर'
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना


तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गयी है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकान्त नहीं
न बाहर, न भीतर।

हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने
..

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इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा


कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।

हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।

जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
..

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इस महीने :
'तुम तो पहले ऐसे ना थे'
सत्या मिश्रा


तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
..

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इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

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