अप्रतिम कविताएँ
पाबंदियाँ
होंठ पर पाबन्दियाँ हैं
गुनगुनाने की।
               निर्जनों में जब पपीहा
               पी बुलाता है।
               तब तुम्हारा स्वर अचानक
               उभर आता है।
अधर पर पाबन्दियाँ हैं
गीत गाने की।
               चाँदनी का पर्वतों पर
               खेलना रुकना
               शीश सागर में झुका कर
               रूप को लखना।
दर्पणों को मनाही
छबियाँ सजाने की।
               ओस में भीगी नहाई
               दूब सी पलकें,
               श्रृंग से श्यामल मचलती
               धार सी अलकें।
शिल्प पर पाबन्दियाँ
आकार पाने की।
               केतकी सँग पवन के
               ठहरे हुए वे क्षण,
               देखते आकाश को
               भुजपाश में, लोचन।
बिजलियों को है मनाही
मुस्कुराने की।
               हवन करता मंत्र सा
               पढ़ता बदन चन्दन,
               यज्ञ की उठती शिखा सा
               दग्ध पावन मन।
प्राण पर पाबन्दियाँ
समिधा चढाने की।
- बालकृष्ण मिश्रा
श्रृंग -- शिखर, चोटी; अलकें -- बाल; समिधा -- यज्ञ में जलाने की लकड़ी
Ref: Naye Purane, 1999
विषय:
चुप्पी (7)

***
सहयोग दें
विज्ञापनों के विकर्षण से मुक्त, काव्य के सुकून का शान्तिदायक घर... काव्यालय ऐसा बना रहे, इसके लिए सहयोग दे।

₹ 500
₹ 250
अन्य राशि
इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा


कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।

हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।

जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'तुम तो पहले ऐसे ना थे'
सत्या मिश्रा


तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
संग्रह से कोई भी रचना | काव्य विभाग: शिलाधार युगवाणी नव-कुसुम काव्य-सेतु | प्रतिध्वनि | काव्य लेख
सम्पर्क करें | हमारा परिचय
सहयोग दें

a  MANASKRITI  website