अप्रतिम कविताएँ
मैं पूरा कहाँ हूँ
घर से निकल कर भी
घर में थोड़ा रह जाता हूँ !
नदी में नहाकर निकल तो आता हूँ
पर थोड़ा नदी के साथ बह जाता हूँ!

जिससे भी गले मिलता हूँ
उसमें कुछ न कुछ घुल जाता हूँ
उदास आँसुओं में थोड़ा-थोड़ा
धुल जाता हूँ!

हर पेड़ की छाया में
हर मोड़ पर थोड़ा-थोड़ा छूट जाता हूँ!

कटे पेड़ के साथ खड़ी रहती है मेरी परछाईं
पेड़ों पर अपनी छाँव छोड़ घर आता हूँ!

मैं कहाँ पूरा रह पाता हूँ!

जो तुम्हें दिखता हूँ वह आधा-अधूरा हूँ
मैं कहाँ पूरा हूँ!
- बोधिसत्व

काव्यालय को प्राप्त: 14 Oct 2022. काव्यालय पर प्रकाशित: 23 Jun 2023

***
सहयोग दें
विज्ञापनों के विकर्षण से मुक्त, काव्य के सौन्दर्य और सुकून का शान्तिदायक घर... काव्यालय ऐसा बना रहे, इसके लिए सहयोग दे।

₹ 500
₹ 250
अन्य राशि
इस महीने :
'पिता: वह क्यों नहीं रुके'
ब्रज श्रीवास्तव


मेरे लिए, मेरे पिता
तुम्हारे लिए, तुम्हारे पिता जैसे नहीं हैं,

एकांत की खोह में जब जाता हूँ
बिल्कुल, बिल्कुल करीब हो जाता हूँ
अपने ही
तब भी
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...


काव्यालय के आँकड़े

वार्षिक रिपोर्ट
अप्रैल 2023 – मार्च 2024
संग्रह से कोई भी रचना | काव्य विभाग: शिलाधार युगवाणी नव-कुसुम काव्य-सेतु | प्रतिध्वनि | काव्य लेख
सम्पर्क करें | हमारा परिचय
सहयोग दें

a  MANASKRITI  website