अप्रतिम कविताएँ
मैं पूरा कहाँ हूँ
घर से निकल कर भी
घर में थोड़ा रह जाता हूँ !
नदी में नहाकर निकल तो आता हूँ
पर थोड़ा नदी के साथ बह जाता हूँ!

जिससे भी गले मिलता हूँ
उसमें कुछ न कुछ घुल जाता हूँ
उदास आँसुओं में थोड़ा-थोड़ा
धुल जाता हूँ!

हर पेड़ की छाया में
हर मोड़ पर थोड़ा-थोड़ा छूट जाता हूँ!

कटे पेड़ के साथ खड़ी रहती है मेरी परछाईं
पेड़ों पर अपनी छाँव छोड़ घर आता हूँ!

मैं कहाँ पूरा रह पाता हूँ!

जो तुम्हें दिखता हूँ वह आधा-अधूरा हूँ
मैं कहाँ पूरा हूँ!
- बोधिसत्व

काव्यालय को प्राप्त: 14 Oct 2022. काव्यालय पर प्रकाशित: 23 Jun 2023

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इस महीने :
'काल का वार्षिक विलास'
नाथूराम शर्मा 'शंकर'


सविता के सब ओर मही माता चकराती है,
घूम-घूम दिन, रात, महीना वर्ष मनाती है,
कल्प लों अन्त न आता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

छोड़ छदन प्राचीन, नये दल वृक्षों ने धारे,
देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन
..

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इस महीने :
'ओ माँ बयार'
शान्ति मेहरोत्रा


सूरज को, कच्ची नींद से
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दूध-मुँहे बालक-सा
दिन भर झुंझलायेगा
मचलेगा, अलसायेगा
रो कर, चिल्ला कर,
घर सिर पर उठायेगा।
आदत बुरी है यह
..

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इस महीने :
'आए दिन अलावों के'
इन्दिरा किसलय


आए दिन
जलते हुए, अलावों के !!

सलोनी सांझ
मखमली अंधेरा
थमा हुआ शोर
हर ओर
जी उठे दृश्य
मनोरम गांवों के !!

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