अप्रतिम कविताएँ
मैं पूरा कहाँ हूँ
घर से निकल कर भी
घर में थोड़ा रह जाता हूँ !
नदी में नहाकर निकल तो आता हूँ
पर थोड़ा नदी के साथ बह जाता हूँ!

जिससे भी गले मिलता हूँ
उसमें कुछ न कुछ घुल जाता हूँ
उदास आँसुओं में थोड़ा-थोड़ा
धुल जाता हूँ!

हर पेड़ की छाया में
हर मोड़ पर थोड़ा-थोड़ा छूट जाता हूँ!

कटे पेड़ के साथ खड़ी रहती है मेरी परछाईं
पेड़ों पर अपनी छाँव छोड़ घर आता हूँ!

मैं कहाँ पूरा रह पाता हूँ!

जो तुम्हें दिखता हूँ वह आधा-अधूरा हूँ
मैं कहाँ पूरा हूँ!
- बोधिसत्व

काव्यालय को प्राप्त: 14 Oct 2022. काव्यालय पर प्रकाशित: 23 Jun 2023

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झर-झर बहते नेत्रों से,
कौन सा सत्य बहा होगा?
वो सत्य बना आखिर पानी,
जो कहीं नहीं कहा होगा।

झलकती सी बेचैनी को,
कितना धिक्कार मिला होगा?
बाद में सोचे है इंसान,
पहले अंधा-बहरा होगा।

तलाश करे या आस करे,
किस पर विश्वास ज़रा होगा?
..

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