अप्रतिम कविताएँ
'केसव' चौंकति सी चितवै
'केसव' चौंकति सी चितवै, छिति पाँ धरके तरकै तकि छाँहि।
बूझिये और कहै मुख और, सु और की और भई छिन माहिं॥
डीठी लगी किधौं बाई लगी, मन भूलि पर्यो कै कर्यो कछु काहीं।
घूँघट की, घट की, पट की, हरि आजु कछु सुधि राधिकै नाहीं॥
- केशवदास
विषय:
भक्ति और प्रार्थना (30)
कृष्ण (18)

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जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता

इस शहर के लोगों के पास
जो छाता है
उसमें

..

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कभी-कभी लगता है
जैसे घर की पक्की छत, दीवारें, चौखटें
मेरी गरम साँसों से पिघल कर
मोम-सी बह गई हैं।

केवल ये खिड़कियाँ-दरवाजे जैसे
कभी ..

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इतनी बार भरी गई है
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कि माँ बन चुकी है एक खिलौना
घूम रही है गोल-गोल
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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