अप्रतिम कविताएँ
जीकर देख लिया
जीकर देख लिया
जीने में -
कितना मरना पड़ता है।
अपनी शर्तों पर जीने की
एक चाह सबमें रहती है।
किन्तु ज़िन्दगी अनुबन्धों के
अनचाहे आश्रय गहती है।
क्या क्या कहना
क्या क्या सुनना
क्या क्या करना पड़ता है
समझौतों की सुइयां मिलती,
धन के धागे भी मिल जाते,
सम्बन्धों के फटे वस्त्र तो
सिलने को हैं, सिल भी जाते,
सीवन
कौन, कहाँ कब उधड़े,
इतना डरना पड़ता है।
मेरी कौन विसात यहाँ तो
सन्यासी भी सांसत ढोते।
लाख अपरिग्रह के दर्पण हो
संग्रह के प्रतिबिम्ब संजोते,
कुटिया में
कोपीन कमण्डल
कुछ तो धरना पड़ता है।
- शिव बहादुर सिंह भदौरिया
Ref: Naye Purane, Geet Anka-1, April,1997

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भाग 6 लय में लय तोड़ना

वाणी मुरारका

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भाग 5 गीतों की ओर

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'सीमा में संभावनाएँ'
चिराग जैन


आदेशों का दास नहीं है शाखा का आकार कभी,
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जड़ के पाँव नहीं पसरे तो छाँव कहाँ से पाओगे?
जिस पर पंछी घर कर लें वो ठाँव कहाँ से लाओगे?
बालकनी में बंध पाया क्या, बरगद का ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...

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कौन तुम अरुणिम उषा-सी मन-गगन पर छा गयी हो!

              लोक धूमिल रँग दिया अनुराग से,
              मौन जीवन भर दिया मधु राग से,
              दे दिया संसार सोने का सहज
              जो मिला करता बड़े ही भाग से,
कौन तुम मधुमास-सी अमराइयाँ महका गयी हो!

             वीथियाँ सूने हृदय की ..

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छंद में लिखना - आसान तरकीब
भाग 2 मूल तरकीब

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