अप्रतिम कविताएँ
जीकर देख लिया
जीकर देख लिया
जीने में -
कितना मरना पड़ता है।
अपनी शर्तों पर जीने की
एक चाह सबमें रहती है।
किन्तु ज़िन्दगी अनुबन्धों के
अनचाहे आश्रय गहती है।
क्या क्या कहना
क्या क्या सुनना
क्या क्या करना पड़ता है
समझौतों की सुइयां मिलती,
धन के धागे भी मिल जाते,
सम्बन्धों के फटे वस्त्र तो
सिलने को हैं, सिल भी जाते,
सीवन
कौन, कहाँ कब उधड़े,
इतना डरना पड़ता है।
मेरी कौन विसात यहाँ तो
सन्यासी भी सांसत ढोते।
लाख अपरिग्रह के दर्पण हो
संग्रह के प्रतिबिम्ब संजोते,
कुटिया में
कोपीन कमण्डल
कुछ तो धरना पड़ता है।
- शिव बहादुर सिंह भदौरिया
Ref: Naye Purane, Geet Anka-1, April,1997

***
सहयोग दें
विज्ञापनों के विकर्षण से मुक्त, काव्य के सौन्दर्य और सुकून का शान्तिदायक घर... काव्यालय ऐसा बना रहे, इसके लिए सहयोग दे।

₹ 500
₹ 250
अन्य राशि
शिव बहादुर सिंह भदौरिया
की काव्यालय पर अन्य रचनाएँ

 जीकर देख लिया
 नदी का बहना मुझमे हो
इस महीने :
'या देवी...'
उपमा ऋचा


1
सृष्टि की अतल आंखों में
फिर उतरा है शक्ति का अनंत राग
धूम्र गंध के आवक स्वप्न रचती
फिर लौट आई है देवी
रंग और ध्वनि का निरंजन नाद बनकर
लेकिन अभी टूटी नहीं है धरती की नींद
इसलिए जागेगी देवी अहोरात्र...

2
पूरब में शुरू होते ही
दिन का अनुष्ठान
जाग उठी हैं सैकड़ों देवियाँ
एक-साथ
ये देवियाँ जानती हैं कि
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
संग्रह से कोई भी रचना | काव्य विभाग: शिलाधार युगवाणी नव-कुसुम काव्य-सेतु | प्रतिध्वनि | काव्य लेख
सम्पर्क करें | हमारा परिचय
सहयोग दें

a  MANASKRITI  website