छूटती हुई सांसे,
बुझते हुए मन,
आज जिन्दगी
एक नए अन्दाज़ में है ।
दूरियां बढ़ाते बढ़ाते,
कुछ लोग बहुत दूर
निकल गए हैं,
लौटना मुश्किल है ।
मोहब्बतें अब बिल्कुल भी,
जिस्मानी नही हैं,
रूहें रूहों से मिलने को
तैयार हैं ।
जंगलों की तरह
फैलती इंसानियत,
अब धीरे धीरे
सिमटने लगी है ।
मालूम तो था कि
अकेले ही जाना है,
पर
इतना अकेले?
भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।
नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...