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तुम
एक ख़्वाब की नदी सी
मुझमें जो बहती हो
अलसाए दिन ढ़ोते हैं
उनींदी रातों को
मैं जानता नहीं ये क्या है
मैं सोचता नहीं ये क्यों है
हर बार तुम्हे मिटाता हूँ
हर बार तुम बन जाती हो
एक ख़्वाब की नदी सी ...
- जितेन्द्र दवे
Jitendra Dave
email:
[email protected]
Jitendra Dave
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विषय:
प्रेम (60)
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इस महीने :
'छाता '
प्रेमरंजन अनिमेष
जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते
हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता
इस शहर के लोगों के पास
जो छाता है
उसमें
..
पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'एक मनःस्थिति '
शान्ति मेहरोत्रा
कभी-कभी लगता है
जैसे घर की पक्की छत, दीवारें, चौखटें
मेरी गरम साँसों से पिघल कर
मोम-सी बह गई हैं।
केवल ये खिड़कियाँ-दरवाजे जैसे
कभी ..
पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'खिलौने की चाबी'
नूपुर अशोक
इतनी बार भरी गई है
दुःख, तकलीफ और त्याग की चाबी
कि माँ बन चुकी है एक खिलौना
घूम रही है गोल-गोल
..
पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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