अप्रतिम कविताएँ
शीत का आतंक
कटकटाती शीत में
सूर्य के सामने ही
आज फिर से
कल की तरह
पारदर्शी हिम पर्त
मेरे हृदय पर पड़ गई
और मेरे ज्ञान का सूर्य
देखने भर को विवश था।

कर भी सकता क्या भला
परतें पड़ीं जिसके ह्रदय पर
हाथ ठिठुरे
पैर ठिठुरे
आंसुओं पर भी लगा गंभीर पहरा
और मेरी इस बेबसी पर
हँस रहा था कोहरा
हो कर के दोहरा
- लक्ष्मी नारायण गुप्त
विषय:
सर्दी (5)
अन्तर्मन (14)

काव्यालय को प्राप्त: 10 Jan 2020. काव्यालय पर प्रकाशित: 27 Nov 2020

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इस महीने :
'दरवाजे में बचा वन'
गजेन्द्र सिंह


भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।

नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...

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पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'पेड़ों का अंतर्मन'
हेमंत देवलेकर


कल मानसून की पहली बरसात हुई
और आज यह दरवाज़ा
ख़ुशी से फूल गया है

खिड़की दरवाज़े महज़ लकड़ी नहीं
विस्थापित जंगल होते हैं

मुझे लगा, मैं पेड़ों के बीच से आता-जाता हूँ
टहनियों पर ...
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पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'छाता '
प्रेमरंजन अनिमेष


जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता

इस शहर के लोगों के पास
जो छाता है
उसमें

..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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