सम्पूर्ण यात्रा
प्यास तो तुम्हीं बुझाओगी नदी
मैं तो सागर हूँ
प्यासा
अथाह।
तुम बहती रहो
मुझ तक आने को।
मैं तुम्हें लूँगा नदी
सम्पूर्ण।
कहना तुम पहाड़ से
अपने जिस्म पर झड़ा
सम्पूर्ण तपस्वी पराग
घोलता रहे तुममें।
तुम सूत्र नहीं हो नदी न ही सेतु
सम्पूर्ण यात्रा हो मुझ तक
जागे हुए देवताओं की चेतना हो तुम।
तुम सृजन हो
चट्टानी देह का।
प्यास तो तुम्ही बुझाओगी नदी।
मैं तो सागर हूँ
प्यासा
अथाह
इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा
कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।
हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।
जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
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